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फंदे - Sushma Tiwari (Sahitya Arpan)

कहानीप्रेरणादायक

फंदे

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"एक फंदा आगे.. दो फंदा पीछे.. एक गिरा कर.. हाय हाय! कुछ समझ ना आ रहा है, लगता है मेरे अरमानो पर पानी फिरेगा.. मुआ कैसे लिखा है.. यूट्यूब देख लूँ क्या.. ना ना सब देख लेंगे फिर, कैसे सीखूं? प्रभा लगी हुई थी धातु के दो कांटों को लेकर ऊन के गोलों मे उलझ सी गई थीं। बस एक ही आवाज़ सुनाई दे रही थी, मिंटू के नन्हें से मन की गुहार, जो वो अपनी माँ से लगा रहा था

"मेरी दादी स्वेटर नहीं बनातीं मम्मी? सोनू और ऋषभ की दादी ने गाँव से भेजा है बना कर, इठला रहे थे दोनों"..
"दादी ने परसों ही तुम्हें इतना महंगा जैकेट दिलाया है, अब तुम्हारी इच्छायें पूरी ना होती दिख रही.. जाओ खेलों "
अनु ने उसे बहला दिया पर मेरा मन जानता है.. सच! मैं उसे पारम्परिक प्यार नहीं दे पाई, अचार और मठरिया बनाना, ना ही स्वेटर बना कर पहनाया.. आता ही नहीं.. मैं तो शुरू से ही किताबों में उलझ कर रह गई। कहीं ऐसा तो नहीं जीवन में इन ऊंचाइयों को छूने के चक्कर में छोटी छोटी खुशियां खो दी हो मैंने! आंखो से आंसू टप टप कर बह चले।
"मम्मा!" अनु ने प्यार से प्रभा देवी के कंधे पर हांथ रखा।
"आप रो रहे हो,.. और ये क्या, क्या फ़ालतू के काम लेकर बैठ गए, इन फंदों में क्यूँ फंस रहे हो? आप इसके लिए नहीं बने हो मम्मा.. जरूरी नहीं हर कोई वही करे जो सदियों से चला आ रहा है.. मिंटू के स्कूल में जब वार्षिक समारोह में आपकी स्पीच होती है ना और सम्मान दिया जाता है तब उसके फ़्रेंड्स कहते हैं काश! हमारी दादी भी ऐसी होती। तो आप मन में किसी तरह का गम ना पाले, हमे तो हमारी लेखक मम्मा ही पसंद है। वैसे आप चाहें तो मैं सीखा सकती हूं। " हँसते हुए अनु ने सारे गम धो दिए।
" ना रहने दे बेटा! सच में मेरे बस का रोग नहीं.. दो दो किताबें पड़ी है, डेड लाइन सिर पर है ".. फिर कभी। प्रभा देवी ने संतोष भरी साँस ली।

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दादी की परी
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