कहानीलघुकथा
#शीर्षक
" समय के काले बिंदु"
" बाबू - ओ बाबू उधर चलें "
हुस्न के बाजार में खड़ा इधर - उधर तौलती निगाह से सौदा परख रहा कुमार , सहसा उस कातर पुकार को सुन चौंक गया।
" उधर किधर"?
बेसाख्ता आवाज निकल गई ।
" उधर उस गली में मेरा घर है , मेरी मां बीमार और दिन से भूखी है "
बारह वर्ष की लड़की को देख कुमार दहल गया ।
रूप बाजार की झलमल रौशनी लड़की के चेहर पर छाए अंधेरे को दोगुना कर रही है ।
उस अंधेरी गली में आंख गड़ा कर देखने पर भी कुमार के हाँथ कुछ नहीं लगा ।
लड़की शायद उस के साधारण लिबास देख कर ही पास आई थी ,
" इन सबके दाम बहुत उंचे है बाबू , मैं कम ही लूंगी "
वह कुमार के हाँथ पकड़ उसे लगभग खींचती हुयी बोली।
उसने जेब से कुछ रुपये निकाल लड़की को देने चाहे ,
" यह लो जा कर मां की भूख मिटाओ "
लड़की दो कदम पीछे हट गई ,
" मुफ्त के पैसे ? मां कहती है हराम होते हैं"।
सीमा वर्मा ©®