कहानीसामाजिक
#शीर्षक
" हादसा "
" बचा लो मुझे ... , रमन बचा लो प्लीज " किसी अंधे कुऐं से आती इस आवाज को
रात में कब और किस पहर सुनी थी यह रमन को बिल्कुल नहीं याद ।
सपना था या सच ?
इतना धुधंला और अस्पष्ट ?
मैं आत्मग्लानि के बोझ तले दबा जा रहा हूँ ।
यह शुभदा दी ही थीं उम्र में रमन से दो वर्ष बड़ी ।
एक सिहरन सी हुयी , उनके हाँथ वैसे ही लाल रंग के नाखून पालिश से रंगी उगंलिया । जब मैं अंतिम बार मिला था उनसे कितनी उदास लगी थीं मुझे।
बचपन से ही सखा भाव था उनसे। साथ-साथ हाई स्कूल तक पढ़े थे मैं और शुभदा दी।
निहायत साधारण शक्ल सूरत थी उनकी सजी संवरी तो वो कभी लगती ही नहीं । सूने आकाश में मलिन चांद सा सांवला रंग पूरे वजूद में सबसे खूबसूरत उनकी बोलती आंखें ही थी।परीक्षा फल निकलने के बाद मैंनें उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली का रुख कर लिया।
और शुभदा दी उसी शहर में छूट गईं थीं। लेकिन जब भी कभी छुट्टियों में घर आता फिर पहले की तरह ही हम घंटों बाते करते ।वे मेरी सभी बात ध्यान से सुन खूब मजे लेतीं और बीच-बीच में टोक कर जानबूझकर कर मुझे परेशान करतीं।
कभी पूछती ," मुझे ले चलोगे? "
खैर फिर बाद के दिनों में मेरा घर आना कम हो गया था कभीकभी ही आ पाता था।
लेकिन फिर इधरउधर से उड़ती खबर सुनी कि मेरी प्यारी शुभदा दी का उठना बैठना कुछ हिप्पी नुमा लोगों के बीच हो गया है।
फूफा जी तो गुजर चुके थे और बूआ उनके शोक में घर संसार से नाता तोड़ चुकी थीं।
और इन सबके बीच शुभदा दी की परमानंद प्राप्ति के नाम से शुरु हुयी यात्रा अब उनके गले की हड्डी बन चुकी है ।
वे नशीली दवाइयों की पूरी तरह से आदी हो चुकी है ।
मेरी अम्मा उनके इस पतन को किसी भी तरह बर्दाश्त नहीं कर पा रही थीं।
उन्होंने मुझे फोन पर सब बाते बता कर मुझको बुलाया । उनको विश्वास था।
कि शुभदा दी को पतन के गर्त से सिर्फ मैं ही बचा सकता हूँ
मैं दो दिनों की छुट्टियों में घर गया भी था।
तब शुभदा दी ने यहीं इस बरगद के नीचे ले जाकर मुझे भी गोलियाँ दी थी ,
" इसे खाओ रमन अगर जिदंगी के असली मजे लेना चाहते हो " ।
नजर से नजर मिला कर उनका यह खुला निमंत्रण हैरान कर गया था। उनके इस रूप पर सहज विश्वास करने के लिए मैंनें उन्हें उंगलियों से छू कर देखा ।
तो शायद मेरी आंखों में दागते सवाल को महसूस कर फीकी मुस्कान के साथ उन्होंने निर्दोष भाव से पूछा था---
"तुम्हें मेरे कहने का विश्वास नहीं?"।
उनके नये अंदाज पर हतप्रभ मैं ने वे गोलियाँ उनसे लेकर फेंक दी ,
" क्या करती हो शुभदा दी क्या हाल बना रखा है , लम्बे बालो वाले हिप्पियों से दोस्ती ? "
" चलो मैं बूआ से तुम्हारे दिल्ली में आगे के दाखिले की बात करता हूँ " ।
तब शुभदादी मुझे थोड़ी सी उखड़ी लगी । शायद अन्तर्मन से वे भी इस चुंगुल से निकलना चाहती थीं। पर यकीन नहीं कर पाती थीं वे ठिठक कर मुझको देखने लगीं?
" और माँ "
उनका स्वर अवरुद्ध हो गया और आंखों में नमी बढ़ गई थी ।
तुम उनकी चिंता मत करो वह मैं देख लूंगा।
मैं शुभदा दी के साथ ही बूआ से मिलना चाहता था ।
लेकिन होनी तो कुछ और ही थी।
अचानक मां को पड़े दिल के दौरे में मैं उनके इलाज के लिए दिल्ली चला आया ।
मैं अन्तर्द्वन्द्व से घिरा गया था।
" शुभदा दी मेरा इन्तजार कर रही होगी या उन हिप्पियों से घिरी होगी ?
कभी सोचता था वे मेरे आने और बूआ से मिल दिल्ली दाखिले की बात करने के लिए रास्ते पर निगाहे लगाए देख रही होगी?"
फिर मैं ऐसा फंसा कि वापस लौट कर जाने तक काफी देर हो चुकी थी । खैर मैं तो देर सबेर लौट आया ।
पर वहाँ मेरे समय पर ना लौटने से शायद निराश हो कर शुभदा दी नहीं थी और ना ही वह हिप्पियों का जत्था ।
मैनें उन्हें ढ़ूढ़ने की बहुत कोशिश की।
अब आप इसे मेरा पागलपन ही कहेंगे और हसेंगे भी कि मैं आज भी किसी नये शहर में जाता हूँ तो वहाँ की सबसे ऊंची जगह पर जाकर उन्हें तलाशता जरूर हूँ।
मुझे अभी विश्वास है कि एक दिन वो जरूर मिलेंगी।
और तब मैं उस दिन उन्हें अचानक देख कर कंही खुशी से बेहोश ना हो जाऊं।
सीमा वर्मा ©®