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विधुर पुरुष - एमके कागदाना (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

विधुर पुरुष

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विधुर पुरुष

अक्सर विधुर पुरुषों के
अधिकारों की गुर्राहट
बेटियों के आगे
बौनी हो जाती हैं
वे समझते हैं
औरतों की वल्यू
कभी खीजते हैं
झुंझलाते हैं
किंतु बेटी के
उलझे केश देखकर
झटक देते हैं झुंझलाहट
दूसरा ब्याह भी
नहीं रचाते
बन जाते हैं स्वयं ही मां
दोहरी भूमिका निभाते निभाते
भूल जाते हैं
अपने पुरुष होने का
दंभ
ऐसे पुरुष अंदर से
कठोर होने का
दिखावा करते हैं
मगर फूट फूट कर
रो पड़ते हैं
बेटी की विदाई पर

एमके कागदाना
फतेहाबाद हरियाणा

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