कविताअतुकांत कविता
डा. शिव प्रसाद तिवारी "रहबर क़बीरज़ादा"
जो कुछ नहीं करते हैं बहुत कुछ करते हैं
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मैं अस्थि कोशिका हूँ।
मैने अपने बचपन में भी परिश्रम किया,
तुम्हारे शरीर को आधार देने के लिये,
मिट्टी ढोता रहा।
तुम्हारे लिये घर बनाता रहा।
जवानी सारी तुम पर न्योछावर कर दी।
तुम्हारे जीवन में सारमयता देने को,
और तुम्हारा घर बनाने के लिये।
तुम्हारी अस्थियों को हमने ही मजबूत बनाया है।
गोया मैं तुम्हारी अस्थियों का बुजुर्ग हूँ।
अब जब बूढा हो गया,
और अब भी-
जब कि मैं सेवामुक्त हूँ,
अस्थि भागावयवों के बीच-
पड़ा रहता हूँ,
तुम्हारे घर के दरवाजे पर
अथवा बाहर के कमरे में
चारपाई पर पड़े रहते हैं जैसे
तुम्हारे घर के बुजुर्ग।
बच्चों के दादा जी।
मैं तब भी
बड़ी जिम्मेदारी का काम करता हूँ,
जब मैं कुछ नहीं करता हूँ।
जब तक मेरा वजूद कायम रहता है,
अस्थि में जीवन का संचार चलता है।
मैं जीवद्रव संवहन हेतु
स्रोतस सुनिश्चित करता हूँ।
घर के बुजुर्ग की तरह
वो भी जब कुछ नहीं करते
तो भी बहुत कुछ करते हैं।
वो तुमको
और तुम्हारे बच्चों को
अंधेरे में रास्ता दिखाते हैं,
कुमार्ग से बचाते हैं,
जीवन के जीवनीय प्रवाह के
सच्चे स्रोत यही तो हैं।
बाकी सब तो
मन बहलाने की बातें हैं।
बच्चे बुजुर्गो के सहारे की लाठी होते हैं।
सच है।
मगर बच्चे
तो समझदारी के पथ पर अंधे होते है।
इस पथ के अंधेरे में
अनुभव और नीतिमान
सदाचार और सद्बुद्धि
की लालटेन ही सहायक होती है।
और यह
दादा जी के पास ही मिलती है।
बचपन में पढते थे,
अंधे और लंगड़े की दोस्ती की कथा।
यह कहानी भी तो वही कथा है।
उसी कथा का प्रतिरूप है।
यह बस वही कथा है।
एक नैसर्गिक कथा,
सतत और शास्वत।
सवेरे के उगते सूरज की तरह।
नहीं जानते
इस कथा का प्राकट्रय कहाँ से हुआ।
ब्रम्हा पुत्र कहते हैं,
इस कथा का नैसर्गिक विकास हुआ है।
स्वयं ब्रम्हा ने यह कथा लिखा है।
देखने वालों को दिखता है।
देखने वालों ने देखा है।
सच ही कहा गया है।
जो कुछ नहीं करते
वो बहुत कुछ करते हैं।
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