कवितालयबद्ध कविता
जब-जब छाया घोर अंधेरा,
नव रवि का आह्वान हुआ।
युद्धभूमि में गौरव लेकर,
तिमिर चीर नव - प्राण हुआ।। 1
जगत मिला फिर से आलंबन,
सुधा के घूंट घट भर लाए।
विष का क्षार विक्षार भये तब,
कलुषित पल हर हर जाये।। 2
ये मत भूलो व्यथित कथायें,
यही आदर्श समाहित है।
हो विध्वंस जब सबसे घातक,
स्वर्णिम युग ही लाई हैं।। 3
देख सके तो देख लो पीछे,
मुड़कर के इतिहास सभी।
ओ क्रंदन करने वालो तब,
मानोगे ये बात सही।। 4
कभी तबाही का झोंका जब,
ले जाता है धन,जन,प्राण।
तब वह पीछे छोड़े जाता,
आशा का अतुलित वरदान।। 5
हो बैठे क्यूँ, नर हो, घर हो,
तुम उस तत्व नारायण का।
क्यूँ हो वंचित लाभ से उसके,
जो है कर्त्तव्यपरायणता।। 6
बन उम्मीद, राख हुये सपने,
आसमान में उड़ जाते,
वारिद बन ,कर तृप्त धरा को,
नवल सूर्य तब चमकाते।। 7
तुम हो धीर, अधीर हुए क्यूँ,
इन झूठे जज्बातों से।
जो आया है कल जायेगा,
बल धारो इन बातों से।। 8
कल का स्वर्णिम युग लायेगा,
तेरी ही जयकार सदा।
साक्ष्य हो तुम उस प्रबल क्रूर के,
जिसने जय का हार दिया।। 9
तुम भोगी हो ,तुम योगी हो,
तुम ही भाग्य विधाता हो।
याद रहे, है कौन जो ऐसा,
नही फल निज कर्म का पाता हो ।। 10