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*विज्ञापन की दुनिया*
प्राचीन कहावत है,बोलने वाले का भूसा भी बिक जाता है। सच भी है किसी चीज की बिक्री के लिए उसके लिए ग्राहक को आकृष्ट करना जरूरी है। मुझे याद है, एक बार हम सराफा में घूम रहे थे। दुकानों के बाहर ही कुछ व्यक्ति बुला रहे थे, " बहन जी, इधर आ जाइए , जो चाहिए यहाँ मिलेगा। " मेरी मजाकिया मौसी बोली, "थारो राखोड़ो " । बेचारा मुहँ लटकाए चलता बना।
अब देखिए, संजीव कपूर सर्फ एक्सेल लिए दाग मिटा रहे हैं तो बच्चन जी घड़ी का पेकेट दिखा रहे हैं। ये लक्स के पीछे तो सारी हिरोइनें ही पड़ गई हैं। हाँ, एक शाहरुख अवश्य कुछ अंतराल से कन्हैया बन आ गया। अब कोलगेट वापरो कि बाबा का दन्त कांति यामी का फेअर एंड लवली कि अपना बरसो पुराना पोंड्स या अफगान स्नो। विद्या बालन का शांति आँवला लगाए कि बाबा का केसकांति। हम ग्राहक बेचारे गाते रह जाते हैं, मैं इधर जाऊँ या उधर जाऊँ। भैया दीवारों का पेंट देखकर क्या शादियां तय हो जाती है। बच्चों को तो बरगलाया जा रहा है। लम्बा होने के लिए कामप्लान, जीतना है बाजी तो बोर्णविटा। अपना केसर इलायची मेवा गए काम से।
सभी उत्पादक करोड़ों खर्च करते हैं विज्ञापन पर और जेब खाली होती है हम उपभोक्ताओं की। अब तो यह एक बड़ा व्यवसाय बन चुका है। ये महान कलाकार पैसे के खातिर क्या क्या नहीं कर रहे हैं। फर्श से पाखाने तक की सफाई करने से नहीं चूकते।
ये विज्ञापन का खर्चा भी कीमत में ही जोड़ लिया जाता है। विज्ञापन वस्तुओं में जीती जागती महिलाएं व बच्चे भी शामिल हैं। अपने उत्पाद को स्थापित करने के लिए कुछ भी किया जा सकता है। महिलाओं की अस्मिता का, उनके सौंदर्य का दुरूपयोग किया जा रहा है। अश्लीलता परोसी जा रही है।
विज्ञापन का सिद्धांत है कि वे कुछ संदेश भी दें। पहले एक बच्चों का आता था। लन्च में विभिन्न समाज के बच्चे एक दूसरे का टिफिन खाते हैं। किसी की बिरयानी, किसी का पराउठा तो किसी का रसगुल्ला। एक वृद्धा एक लड़के को कुछ उठाने को कहती है। तभी उपर से कुछ गिरता है। वह थेंक्यु कह चाकलेट देती है, कुछ ना करने के लिए। इसीतरह दूधवाले व कामवाली को केटबरी देते दिखाया है। अतः विज्ञापन भी ऐसे हो कि देखने में मजा आए।
कई बार लगता है भ्रमित होने के बजाय सीधे नीम की टहनी से दातून करें, राख से
बरतन माँजे, आँवले
अरिठे से बाल धोए,,,। पुनः प्रकृति की ओर लौट चले।
सरला मेहता