कहानीलघुकथा
#शीर्षक
" धूप के आर-पार"
" माफ करो ! मुझको माफ कर दो !"
डरी और घबराई हुयी आवाज में बोल रहे हैं परेश जी।
जैसे आग भभक उठने पर जिसे जो भी हाँथ आता है उसी को लपक कर दबाने का प्रयास करता है ठीक वैसे ही गरिमा कह उठी
_ " माफ ? यह माफ करने लायक है ?
यह बेशर्मी की हद है।
आखिर क्या सोंचा है आपने ?
इसे पढ़ कर गले लग जाउंगी आपके?"
" क्योंकि आपने आसरा दिया है , तो आपका हक खुद व खुद बन जाता है"।
_ " मुझे माफ कर दो ! " लगभग गिड़गिड़ाते हुए परेश ने मिनन्त की "
- नहीं और माफ नहीं कर सकती आप बेशर्म ही नहीं बेहया भी हैं "।
" गरिमा !
नहीं गरिमा कह कर मत पुकारें आप ।
ऐसा क्या कुसूर है मेरा ? "
इस बार खोखली आवाज में परेश जी। उन्होंने दरवाजे के बाहर खड़ी भीड़ की परछाईं महसूस करते हुए।
इतना सुनते ही गरिमा के तन-बदन में आग लग गई ,
झटके से उठ कर खड़ी हो उनके द्वारा लिखे गए अश्लील पत्र को लहराते हुए कहा --- " यह क्या है क्यों लिखा इसे
क्योंकि आपने मेरी मुश्किल वक्त में आसरा दिया है तो आपका हक बनता है मुझ पर ?"।
नीरज बाबू ने उसके हाँथ पकड़ पत्र लेने की कोशिश की ।
अब गरिमा के धैर्य का बांध टूट गया ।
उसने अपना त्याग पत्र टेबल पर फेंक उनके कौलर पकड़ खींच कर जोर से बोली ,
" बदचलन हैं आप सुन लीजिए सुन्दर पत्नी बच्चों के रहते हुए भी बाज नहीं आ रहे "
" पिछले दो वर्षों से चुपचाप इस कुढ़न को सहती आ रही हूँ लेकिन अब और नहीं "।
भीषण क्रोध के आवेग में आपे से बाहर हुई गरिमा चीखती हुई दरवाजे से बाहर निकल गई ।
सीमा वर्मा ©®