गजल
मैं हरदम अपना गुमान लिए चलता हूँ
खाली नहीं, जुबान लिए चलता हूँ।
क्या पता कब आसमाँ का साया छिन जाए
इसलिए अपना मकान लिए चलता हूँ।
वक्त का क्या पता मिले न मिले
हाथों में कफन, मसान लिए चलता हूँ।
जरूरी नहीं कि सब कुछ नसीब ही हो
अपने सपनों की उड़ान लिए चलता हूँ।
दो-गज जमीन मयस्सर हो जरूरी तो नहीं
इसलिए कंधे पर आसमान लिए चलता हूँ।
जब निकला हूँ तो मिलूँगा समन्दर से जरूर
वह दरिया हूँ जो तूफान लिए चलता हूँ।
अनिल मिश्र प्रहरी।