कवितालयबद्ध कविता
ये शव
अनाथ से यों
तैरते से ये शव
कल साथ थे जो,
आज बिल्कुल
गैर से ये शव
एक हृदयहीन व्यवस्था के
मन की एक
संवेदनहीन अवस्था के
शब्दहीन कर दी गयी
हर संस्था के
मरकर भी कुछ
जीते-जागते ये सबूत
करके हर संघर्ष,
अंत में हार चुके से ये वजू़द
कुछ बेरुखे से,
बेरहम से हाथों से,
छूटकर और टूटकर
कुछ विवश से साथों से,
निःशब्द सिसकियों और
मजबूर से हालातो में,
जज़्बातों का गला घोट
कुछ आखिरी मुलाकातों के
जल-थल में बिखरे हुए से
ये निशान
रेत की चादर ओढे़ कुछ
कल के हरे-भरे जहान
हाँ, जो कभी कल तक भी
हम जैसे ही जीते-जागते
और चहकते से इंसान थे
जो समझ ना पाये खुद ही
जिंदा रहकर जो, वो सब कुछ
समझा गये वो हम सब को
गड्डमड्ड से हो रहे इन
शमशान, कब्रिस्तान में
खोकर वो सभी निशान से
जो कल तक उनकी पहचान थे
वो पहचान जिसे मोहरा बनाकर
कल तक बाँटा जा यहा था
कर जमीर को अलग-थलग,
नफरत से काटा जा रहा था
वो पहचान छीनकर मौत ने
एक कड़वा पैगाम दिया है
वो पहचान छीनकर जीवन को
यह अनचाहा अंजाम दिया है
हाँ, ये दबे-ढके,
कुछ अधढके, कुछ अनढके,
कुछ उघडे़, कुछ उजडे़ ये
कुछ तुडे़-मुडे़ से, सिकुडे़ से
ये शव हैं इंसानियत के
खुद को खुदा से जोड़ती
पाकीज सी रूहानियत के
बंदे को बख़्शी गयी एक बंदगी के
गम ओढ़ती, दम तोड़ती सी जिंदगी के
ये शव हैं
तिल-तिल मरते
इस लोकतंत्र के
"लोक" जिसका लोप हो गया
उस मशीन से, अधमरे से "तंत्र" के
हर हालत में जीतने के मंत्र के
चुनाव, बस चुनाव ही
जीतना मकसद है जिसका,
मिथ्या और उन्माद का
सैलाब ही मजहब है जिसका
उस गढे़ गये रोबोट के
वोट-वोट, बस वोट-वोट ही
असली मकसद पर चोट ही
जिसका प्रोग्राम है
जीतना, बस जीतना ही
जिसका बस एक काम है
लोकतंत्र के इन सभी पहरेदारों को
जनसेवक बन आ धमके चौकीदारों को
इन छलियों और इन झूठे गद्दारों को
फूट डालकर लूटते इन मक्कारों को
नफरत के ठेकेदारों को,
गफ़लत के पैरोकारों को
इंसानियत के इन शवों का
बारंबार प्रणाम है
जो ले चुके हम से विदा
कहकर एक मौन अलविदा,
जो कभी लौटकर ना आयेंगे
मन में यादें बनकर जिनके
बस निशान ही रह जायेंगे
उन सबका हम जिंदों को
खुद से ही शर्मिंदों को
एक अनंत मौन में सिमटा
आखिरी सलाम है
द्वारा : सुधीर अधीर