कहानीलघुकथा
प्रस्तुत है लघुकथा ...
#शीर्षक
आगे की राह ...
मेडिकल के अन्तिम वर्ष की फेयरवेल पार्टी पूरे जोर- शोर से चल रही है ।
इस शोर-शराबे से दूर हौल के एक कोने में बिजली की झलमल करती रौशनी में लगी मेज पर डौक्टर सुमेधा अपने सहपाठी सुबीर राए के साथ बैठी भविष्य के सुनहरे सपने बुनने में लगी है ।
उसकी आंखों में शाम का सिंदूर उतर आया है।
इस समय उसकी दिपदिपाती सुंदरता देख सुबीर हतप्रभ है।
'कल हम दोनों अलग हो जाएंगे आगे की क्या सोची है?'
प्रेमिल नजरों से सुबीर को देख बोली ।
' पहले रिजल्ट निकल जाए फिर हमारी जौब लग जाए तब सोचते हैं '
'आ हाँ क्या... जौब तुम जौब की सोच रहे हो? '
' मेरे डैडी ने हमारे लिए अमेरिका में उनके दोस्त डौक्टर विलीयम से बात कर ली है '
' क्या ?... क्या कहा लेकिन क्यों?'
" हाँ वे चाहते हैं शादी के तुरंत बाद ही हम दोनों आगे की पढ़ाई के लिए वहाँ शिफ्ट हो जाएं " ?
सुमेधा के मुंह से यह सुन सुबीर के चेहरे की चमक जाती रही।
वह समझ नहीं पाया सुमेधा यह क्यों और क्या कह रही है ?
विदेश जा कर आगे अध्ययन करना, इसकी तो उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी।
उसने अपनी आंखे जलते हुई रंगीन रौशनी वाले बिजली के लट्टुओं की ओर देख कस कर बंद कर लीं।
सुमेधा यह देख संतोष से मुस्कुरा दी उसे पूरा विश्वास हो आया था,
इतना मोहक प्रस्ताव सुबीर ठुकरा ही नहीं सकता है।
लेकिन तुरंत ही सुबीर ने मन की उधेड़बुन से उबर सहज स्वर में आशा से भरा हुआ,
' पर मैंने तो ऐसा कुछ नहीं सोचा है... इनफैक्ट मैं तो स्वदेश छोड़ कंही बाहर जाने की कल्पना भी नहीं कर सकता ' ।
" तुम मेरा साथ दोगी ना सुमेधा?'
" हम दोनों मिल कर यंही एक अस्पताल खोल लेगें जिसमें दीन -दुखियों की सेवा होगी "
" यकीन मानों मेरा पैसे जरूर कम मिलेंगे ,
लेकिन गरीबों की सेवा के प्रतिदान में जो आत्मिक संतोष मिलेगा वह दुनिया के किसी भी ऐश्वर्य से कम नहीं होगा " ।
सुमेधा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा है थोड़ी रुष्ट हो कर बोली ,
" अच्छा मजाक कर रहे हो सुबीर "
" मजाक नहीं कर रहा सच कह रहा हूँ "
आगे कुछ बोलता कि सुमेधा टोक कर बोली ,
" व्यर्थ के पचड़े में पड़ रहे हो तुम हमने मिल कर कितने सपने देखें हैं सुबीर "
फिर रोष में भरकर ,
" ऐसा ही था तो पहले क्यों नहीं बताया "
उसकी आंखों में आंख डाल कर गंभीर हो सुबीर बोल उठा ,
' तुम्हारे डैडी ने भी तो कभी इसका जिक्र नहीं किया '।
हल्के कुहरे का आवरण छंटने लगा है ।
सुबीर कातर स्वर मेंं ,
" मेरी कर्मस्थली यंही है सुमेधा अब इसे चाहे मेरी इच्छा समझो या भाग्य ,
"विशाल समुद्र की लहर भी कहाँ समेट पाई मुझे ,
मैं अकेला ही सही "
" मुझ पर मेरी मातृभूमि और जननी को छोड़ ना ही किसी का ऋण है ना चुकाना है मुझको "
कह सुमेधा के हाँथ थपथपा कर उठ खड़ा हुआ।
सुमेधा को अपने पैर के नीचे की जमीन खिसकती नजर आई ,
उसने चौंक कर सुबीर को देखा और कस कर उसकी कलाई थाम ली।
सुबीर ने भी उसके चेहरे पर नजर गड़ाए हुए ,
' आगे की डगर मेरे साथ तुम्हारे लिए शायद कठिन होगी सुमेधा '
यह कह अपने हाँथ धीरे से खींच वह आगे बढ़ गया ।
सीमा वर्मा ©®