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पूर्णिमा का चांद - Minal Aggarwal (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

पूर्णिमा का चांद

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कल सांझ होते ही
मेरे कमरे की
खिड़की से लटका
आसमान में टंगा
कुछ ज्यादा ही चमकता
कुछ ज्यादा ही रोशनी बिखेरता
पूर्णिमा का चांद देखा
आहिस्ता आहिस्ता
वह अपने सफर पर
बढ़ता रहा
मैंने भी खिड़की पर
पर्दा नहीं डाला और
उसे एकटक निहारा
जब वह आंखों से
ओझल हो गया और
अपने आसमान के किसी
शीर्षस्थ स्थान पर जाकर
बैठ गया
मैंने खिड़की पर
पर्दा डाल दिया और
कमरे की लाइट बुझाकर
अपने बिस्तर पर
पड़कर
गहरी नींद सो गयी
बीच रात
कहीं आंख खुली तो
फिर वह
दमकता चांद
अपना आधा सफर
तय करके
दूसरी खिड़की में
विराजमान था
वह मुझे मेरे घर का
पहरेदार सा
प्रतीत हो रहा था
मेरे घर की रखवाली कर रहा था
रात रात भर जागकर
मुझे रोशनी से भर रहा था
पूरे घर का चक्कर लगा रहा था
मेरी नींद में
कोई बाधा न डालकर
मुझे एक सुकून भरी
अपनों के अहसास सी
एक गहरी
सुनहरी रंगत से भरी
अपनी ही रोशन दुनिया की
कोई अकल्पनीय, अलौकिक और
जादुई नींद सुला रहा था।

मीनल
सुपुत्री श्री प्रमोद कुमार
इंडियन डाईकास्टिंग इंडस्ट्रीज
सासनी गेट, आगरा रोड
अलीगढ़ (उ.प्र.) - 202001

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