कविताअतुकांत कविता
#24 अगस्त2020
# वार- सोमवार
# महल और झोपड़ी
एक दिन जो निकला बनकर मैं यायावर
फिरता रहा कभी इस डगर-कभी उस डगर.....
देखे जीवन के कई आयाम, विविध रंग- रूप
जगमगाती सड़कों पर बने भव्य आलिशान भवन
बयां कर रहे वर्चस्व अपना जैसे भूपों के प्रासाद ।।
सोचा मन ने देखूँ इसके भीतर का जीवन
ऊँचे- ऊँचे प्रवेशद्वार प्रहरी रहता उस पर तैनात
आगंतुक का बिना आज्ञा प्रवेश निषेध,
लेकर अनुमति जो पहुंचे भीतर
देखा-
सुख-सुविधाओं की कमी न थी,
नौकर-चाकर कर रहे थे सेवा,
फिर भी था चेहरे पर एक तनाव
जी नहीं सकते थे खुलकर ये जीवन
इन प्रासादों ने इनको बना दिया था
सोने के पिंजर की चिड़िया.....
निकल बाहर आये जब हम फिर राहों पर
देखा-
कुछ मटमैले शरीर वाले बच्चे लोट रहे थे मिट्टी में
पास माता-पिता जुटे पड़े थे कामों में
सांझ ढले पहुँचेअपने द्वारे, हम भी हो लिये संग उनके
यहाँ द्वार पर न था रक्षक , खुला द्वार कर रहा था स्वागत,
भीतर सामान्य से भी इतर जीवन, आज की आवश्यकता
हों जाएं पूरी बस इतनी ही थी ख्वाहिश इनकी। ।
भीतर जाकर एक ने जलाया दीया-बाती, एक ने चूल्हा
आज अच्छा काम मिला था और समय पर मजदूरी
यही सोच थे प्रसन्न मुख , मिलेगी आज भरपेट रोटी
कोई डर -भय नहीं, अपना जीवन खुलकर जी रहे थे
क्योंकि ये सोने के पिंजर की चिड़िया नहीं
ये तो कच्ची माटी से बनी झोपड़ के स्वतंत्र परिंदे थे.. ....
स्वरचित/मौलिक
डॉ यास्मीन अली।