कविताअतुकांत कविता
*मैं फ़ूल हूँ*
*प्रकृति की सौगात अनुपम
रंग बिरंगा मनमोहक मैं
बगिया की हूँ शान अनोखी
जर्रा जर्रा महका देता मैं
जहाँ कहीं भी रहता हूँ
*गुलदस्ता बनकर के मैं
स्वागत सब का करता हूँ
वेणी में गुथकर लहराता
नारी के सज्जित केशों में
चार चाँद ही लगा देता हूँ
*मंदिर मंदिर जाकरके मैं
देवों के सिर पर इतराता
भक्तिभाव से भोग लगाते
झुक कर सब शीश नवाते
और मैं बैठा बैठा इतराता
*नेताओं के मज़में जमते
मेरे भाव आसमाँ छूते हैं
छीनाझपटी के लफड़े में
जूतों से रौंध दी जाती हैं
मेरी नाज़ुक सी पंखुरियाँ
*कई व्यवसाय चलाता हूँ
इत्र बनकरके महकाता मैं
गुलकंद मेरा पान सजाए
गुलाबजल है अमृत जैसा
मिठाई जायकेदार बनाता
*अंतर्मन की अभिलाषा
बस कवि वृंद ने बतलाई
मुझे तोड़ लेना वनमाली
उस पथ पे तू बिछा देना
जिस पथ आए वीर अनेक
सरला मेहता