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बचपन की सखियाँ - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

बचपन की सखियाँ

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बचपन की सखियाँ

जब ज़िन्दगी के तन्हा लम्हों में
मायूसी घेर लेती है आठों पहर
याद आती बचपन की सखियाँ

बात गम की हो या ख़ुशी की
साँझा करने का होता है दिल
काश,संग होती हमजोलियां

जब दिल बल्लियों उछलता है
सखियों संग पनघट जाने का
याद आ आती गाँव की गलियां

रिमझिम आती बूंदे बारिश की
भीगने भिगाने की होती चाहत
गूंजनेलगती कानों में ठिठोलियां

याद है सखी संग डुबकी लगाना
छपाछप नज़ारा हम कैसे भूले?
झरनों को गर्भ में समाती नदियाँ

हंसते झेलना नेवती से झरता पानी
टपकते गोल ओले खाना खिलाना
कहाँ गुम हो गई हो सब सहेलियां

कनेर-पांचे पव्वा गुड्डे गुड्डी का ब्याह
खेलना गाना-नाचना रूठना-मनाना
याद कर कर के भर आती हैं अँखियाँ

सावन में पीपल पर वो बड़ा सा झूला
मुक्का मार के साथिनों को फूली देना
कैसे उड़ जाती थी रंग बिरँङ्गी चुनरियाँ

तितली पकड़ना,फूलों से वेणी बनाना
हर त्यौहार पर मिलजुल उत्सव मनाना
गीत गाते संजा पे महकाना फुलवारियां

अब हमारी गोद में किलकती है परियां
सुन के उनकी तुतलाती प्यारी सी बातें
साकार हो रही हमारी सपनों की दुनिया

सरला मेहता
इंदौर
मौलिक

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