Help Videos
About Us
Terms and Condition
Privacy Policy
सड़कों पर बिखरी हुई यह विवशता - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

सड़कों पर बिखरी हुई यह विवशता

  • 286
  • 8 Min Read

मन गाँव की डगर पे,
बस साँसें ही चल रही
अब शहर में,
जाने क्या अब और
देखना बाकी है,
अनायास ही टूट पडे़
इस कोरोना के कहर में

रोटी, कपडा़, मकान खो गया
इस पत्थर के नगर में,
पाँव भाग्य की टेढी़-मेढी़ 
पगडंडी पे,
साँसें लगती हैं उधार की,
जीवन बना त्रिशंकु सा,
अटका-लटका सा अधर में

हर दिन लगता अजनबी सा,
हर रात लगे बेगानी सी,
झेल रही है जिंदगी
किस्मत की यह मनमानी सी

और हमारी यह मजबूत 
अर्थव्यवस्था
दुनिया की एक सबसे 
तेज अर्थव्यवस्था
फाइव ट्रिलियन के शून्य 
खोजती व्यवस्था
और इसके मोहजाल में 
फँसते जाने की विवशता

हाँ, सड़कों पर बिखरी हुई 
यह विवशता
पूछ रही कुछ यक्षप्रश्न, 
उत्तर दे यह व्यवस्था
बस चंद दिनों का लाॅकडाउन 
बन बैठी इस सर्वहारा वर्ग की,
मृत्यु-भय की लक्ष्मणरेखा लाँघकर
बाहर आती, भूख की एक विवशता

हाँ, शहर में बसा हुआ 
यह गँवार मन
वातानुकूलित कक्ष में 
घिरा हुआ गँवारपन
समृद्धि की चकाचौंध में चौंधियायी
नजरों में बसते अहंकार का 
खोखला सा बड़प्पन

गैंडे जैसी खाल में लिपटा हुआ,
तंगदिली और संगदिली के 
दायरे में हर पल सिमटा हुआ,
यह बजते चने सा थोथापन
मन की छलकती गगरी का 
यह अधकचरापन, ओछापन

जरखरीद से बन चुके
इस सोशल मीडिया पर
लूटने को वाह वाही
लगती है बस साजिश जिसको
ये कयामत, ये तबाही,
होता अपने ही जमीर से हरजाई

हाँ, किसी की मजबूरी को 
लापरवाही कहता हुआ
एक गँवारपन
हाँ, धूल भरी इन 
कच्ची-पक्की सी
सड़कों  पर नहीं, 
इन सबसे दूर कहीं,
बहुत ही दूर कहीं,
इस मजबूरी से नजरें फेरे,
एक खोखले से दंभ से खुद को घेरे
खुद में ही मगरूर कहीं
किसी छत के साये में 
महफूज कहीं
बसता है इस शहर का गँवारपन
हाँ, यहीं पर छिपा है
शहर में बसा गँवार मन

द्वारा  : सुधीर अधीर

logo.jpeg
user-image
प्रपोजल
image-20150525-32548-gh8cjz_1599421114.jpg
माँ
IMG_20201102_190343_1604679424.jpg
वो चांद आज आना
IMG-20190417-WA0013jpg.0_1604581102.jpg
तन्हा हैं 'बशर' हम अकेले
1663935559293_1726911932.jpg
ये ज़िन्दगी के रेले
1663935559293_1726912622.jpg