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अतिथि, तुम कब जाओगे - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

अतिथि, तुम कब जाओगे

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अतिथि, तुम कब जाओगे
" मान ना मान, मैं तेरा मेहमान "
बिन बुलाये, अनचाहे से
आ धमके मेहमान,
तुमसे हर एक मेजबान है परेशान
चेहरा यह आपका देख-देखकर,
जाने की बाट देख-देखकर,
सब हथियार फेंक-फेंककर
तन-मन-धन सब तुमसे हारे,
हाथ जोड़कर पूछें सारे
पीठ कब दिखलाओगे
अतिथि, तुम कब जाओगे

चूल-चूल अब हिल रही हैं
जिंदगी की बुनियादें
हाँफते से, काँपते से
जिंदा रहने के इरादे,
थमी-थमी, सहमी-सहमी,
सिहरी-सिहरी,
बिखरी-बिखरी सी
आज सबकी सभी मुरादें,
हम सबका सुख-चैन,
वे हँसते-खेलते दिवस-रैन
कब वापस लौटाओगे
अतिथि, तुम कब जाओगे

अब तो पीछा छोडो़ ना,
इस दुनिया से मुँह मोडो़ ना,
जिसने तुमको भेजा, उससे
फिर से नाता जोडो़ ना,
मासूम बच्चों की साँसों की
डोर को यूँ तोडो़ ना
सिसक रहा है धरती का
एक-एक कोना
अब तो हम पर दया करो ना,
हे कोरोना,
और कितना अब हमें सताओगे
कितना और रुलाओगे
और कितने जीवन को तुम
मिट्टी में मिलाओगे,
अतिथि, तुम कब जाओगे

द्वारा : सुधीर अधीर

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