कहानीलघुकथा
*कन्या पूजन*
पूजा की तैयारी करते अनुराधा सोचने लगी, "पिछली कन्या पूजन पर इसी घर में खुशियों मानो हिलोरें ले रही थी। वह मन ही मन में प्रार्थना कर रही थी , " हे देवी माँ एक बेटी और मुझे दे दो। मेरा परिवार पूरा हो जाएगा।" दूसरे दिन बेटे विभु की बर्थडे पार्टी थी। दोस्तों के साथ नाच गाना छोड़ विभु ने मम्मा के कान में कहा था, " आप इस बार भी मेरे लिए बहन नहीं लाई। मैं आप से कट्टी हूँ।"
पति नीरज कितने प्यार से बेटे के उपहारों के साथ उसके लिए भी साड़ी व हीरे की अँगूठी लाए थे। अचानक उसके हाथ एक बिल आ गया, दो अंगूठियों का।
और वह बिल छोड़ गया कई अनुत्तरित प्रश्न। क्या करे, कुछ समझ नहीं पा रही थी। पति पर उसे पूरा भरोसा था। जैसे तैसे अपनी नौकरी व बेटे की पढ़ाई में मन लगाने लगी।
आज कन्या पूजा के लिए खीर पूड़ी बना चुकी थी। नौ कन्याओं के लिए इस बार चाँदी की पायलें लाई है। एक कन्या की कमी है। सोचने लगी किसे बुलाए ? तभी फोन पर अजनबी स्वर सुन चौक जाती है। वह तुरंत बताए पते पर पहुँचती है। एक बीमार सी महिला बुझे शब्दों में पूछती है, "आप अनुराधा जी,,,मैं नीरा हूँ। मैं आपके पति नीरज की दोस्त हूँ। मेरे पति शादी के दो माह बाद ही गुज़र गए। मेरे ससुराल वालों ने सब पैसा हड़पकर मुझे घर से निकाल दिया। इत्तफ़ाक से नीरज जब कानपुर में थे। वे अपने साथ मुझे यहाँ मुंबई ले आए और मेरी ख़ैरियत का खयाल रखने लगे। मैंने बहुत समझाया किन्तु वे मेरे करीब आते गए। मैंने सोचा नौकरी लगते ही आप दोनों की ज़िन्दगी से दूर चली जाऊँगी।"
तभी एक प्यारी सी बच्ची मम्मा मम्मा पुकारती आई। नीरू ने हाथ जोड़कर विनती की," मैं कैंसर की मरीज़, थोड़े दिन की मेहमान हूँ। बस आप मुझ पर एक एहसान करें। मेरी बेटी नव्या को अपना लें। तभी मैं शान्ति से मर पाऊँगी। नीरज ही इसके पिता हैं।"
अनुराधा कुछ बोल नहीं पाई। नव्या का ज़रूरी सामान ले प्यार से बच्ची को घर ले आई। अपराध बोध से दबा नीरज कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं था। बस पत्नी को कन्या पूजन की तैयारी करते देखता रहा।
सरला मेहता