कवितालयबद्ध कवितागीत
सा रे गा मा (अंत का आरंभ)भाग चार
।।।गीत मिलन के।।।
नायक और नायिका के अन्तर्ममन की आवाज
कुछ यूं गीत बन कर फजाओं में गुजने लगी
आखिरकार निस्वार्थ प्रेम की जीत होती है। दोनो एक
दूसरे की आखों में खो जाते हैं। और एक सुमधुर गीत अपने आप
उनके मन के कोने में झंकृत होती है। कुछ इसतरह--------‐---
नायक
कुदरत की महरबानियां हां मिलना था हमें
बनके फूल बाग में हां खिलना था हमें।
ऐसे ही नही बाग में कोई गुल खिला करते
जब चाहता है रब तभी ये गुल मिला करते।
बेसब्री के आलम में पुकार था कई बार
हां ऐसे ही नही दिल से आवाज निकलते।
कुदरत का करिश्मा है जो हमको मिलाया
ऐसे ही नही दो दिल इस जहां में है मिलते।
नायिका
कुदरत की मंहरबानियां हां मिलना था हमें
बनके फूल बाग में हां खिलना था हमें।
कई रोज दुआओं में जब मांगा तुझे मैने
हसरत थी पनाहों में हां ले लूं तूझे अपने
कई बातें मलाल बनके अब गम के निकलते
ऋतु बनके बरसात अब आखों से पिघलते ।
तारों का शहर है और चंदा की चाँदनी
बेफिक्र अरमानों की हो बजती रागिनी ।
सहरा (जंगल ,वन)हो बस फूलों का सरगम जहां बजे
आखों में आंख डालकर हम तुम जहां मिले।
कुदरत की महरबानियां हां मिलना था हमें
बनके फूल बाग में हां खिलने था हमें।