कवितालयबद्ध कविता
शहर की हर एक दीवार
जिधर देखिये, बिखरा-
बिखरा सा पडा़ है प्यार
छलका-छलका,
ढलका-ढलका,
उमड़ रहा है बनकर ज्वार
हाँ, हो रही है हर दीवार
सजकर दुल्हन सी तैयार
सबके चेहरों के दागों को
ढकने को, देखो,
चिपक गये हैं आकर, देखो,
इतने सारे रंगीन मुखौटे
आ गये हैं बनकर असली,
जाने कितने सिक्के खोटे
दावे कितने भारी-भरकम,
कोई नहीं किसी से कम,
सब के सब हैं
गोल-मटोल, मोटे-मोटे
जितने लंबे-चौड़े वादे
सब्जबाग दिखाते वादे,
उतने ही होते डाँवाडोल
सारे, सबके सभी इरादे
जिधर देखिये, उधर पोस्टर
इधर पोस्टर, उधर पोस्टर
नीचे-ऊपर लगे पोस्टर
हाँ, "सुपर से भी ऊपर"
जाने क्यूँ सबको लगे पोस्टर
सम्मोहित सा करते
मन को पोस्टर
बने हुए जनमन का जैसे
इमोशनल सा
एक रोलर कोस्टर
करने को मन को बुल्डोज़
मन की बातों की मिलती डोज
जिधर देखिये भाषण-भाषण
भूले जिनसे जनता राशन
बन एक इमोशनल ब्लैकमेल,
लफ्फाजी का ऐसा खेल,
भूल जायें जिससे हम सब
नून, लकडी़ और तेल
हर दीवार के पास
बिल्कुल अडा़ हुआ,
एक आदमी सड़क का
आकर खडा़ हुआ
इन सभी पोस्टरों में
जाने क्या ढूँढ रहा है ?
ढूँढ रहा है, या फिर
सच से आँखें मूँद रहा है
ढूँढ रहा है,
पाँव टिकाने की जगह ?
जिंदा रहने की कोई वजह ?
एक छोटा सा जहान ?
रोटी, कपडा़ और मकान ?
या फिर गिनता फिर रहा है,
कब्रिस्तान और शमशान ?
बनकर रहना चाहता है,
सचमुच एक इंसान ?
या फिर बनकर रह जायेगा
फिर से एक हैवान ?
याद आती है उसको
एक साल पहले खिंची
वो ऊँची दीवार
एक गोरे मेहमान से
काला सच छुपाने को
वो विकास का ढोल
पीटती सी दीवार
और चंद दिनों के बाद
वह खुद
ढूँढता ही रह गया था
एक छत सिर छिपाने को
और एडियाँ रगड़ने को
सड़क पर, लाचार
इन कंचनमृग से सुनहरे
और सुहावने पोस्टरों के बीच
क्या फिर से
वो जगह वही
ढूँढ रहा है ?
वोट देने जाने की
क्या फिर से
वो वजह वही
ढूँढ रहा है ?
या फिर आँखें मूँद रहा है
कड़वे सच से
और रह जायेगा
फिर से फँस के
नफरत के इन पाटों में
फूट डालने
और राज करने की
इन सब खुराफातों में
इन यक्ष-प्रश्नों का उत्तर
अभी समय के पास है
हाँ, अभी भी वक्त
फिर से सोचने का
इन सभी पोस्टरों में
खुद की
एक जगह खोजने का
हम सबके पास है
बाद में ये वक्त
आगे बढ़ जायेगा
और हम पीछे,
बहुत ही, पीछे
अवसर से आँखें मींचे
इतना पीछे छूट जायेंगे
हर बार की तरह
हम फिर से
मौका चूक जायेंगे
द्वारा: सुधीर अधीर