कविताअतुकांत कविता
*डिजिटल जनरेशन*
*बहुत सुन रखा है मैंने
इधर खाई, उधर पहाड़
अंदर आग, बाहर फ़साद
यहाँ पत्नी, वहाँ है बॉस
*घने जंगल में शेर आजाए
तो,,,प्राण ही निकल जाए
कामचोरी पकड़ी जाए तो
ऊठक बैठक में ना शरमाए
*या फ़िर थर थर काँपते
हनुमान चालीसा मन में
जपते ही चले जाए
बिना अगल बगल झाँके
*ऐसे होते देखे निठल्ले कई
स्मार्ट फ़ोन के बड़े दीवाने
कोई मरे या कोई जीए
बस फ़ोन डिस्चार्ज ना हो
*वायफ़ाय डाटा चलता रहे
निरन्तर बगैर थके हारे
गड़बड़ी हुई नहीं कोई
कि लगे झाड़ने रुदबा
*घर में चाहे ना हो दाने
या माँ बाबा आए मनाने
पेट पीठ एक हो जाए
भले मोटी ऐनक लग जाए ki
*एक तरफ़ फ़रमान तुग़लकी
जूते की नोक कराए काम
वहीं डटी जयहिंद की सेना
छाती पे गोलियाँ खा रही
*लेकिन इस नई प्रजाति पर
जूं तक नहीं रेंगती दिखती
खाने पीने तक की चिंता नहीं
कैसे पुनः मिलेंगे भारत को
भगत रमन गांधी मोदी ?
*हर किसी को लगा ये चस्का
रोबोटिक इंसां हो रहा है
भावविहीन तस्वीरों सदृश
ये बुद्धू बक्से हैं बन रहे
*इस आभासी आगाज़ का
क्या होगा अंजाम रब जाने
साँसें चाहे थम जाए
ये उँगलियाँ चलती रहेगी
*इस नवसंस्कृति उदय से
दिल पाषाण,दिमाग़ सुन्न
शोध ख़ोज सृजन निर्माण के
बंद हो जाएंगे रोशनदान
*अरे भई, बड़े तो बड़े
ये छुटके भी सुभानल्ला
कुसूर इनका नहीं है जी
माँ के पेट से सीख आए हैं
*हाँ, इन रोते बच्चों को
ज़रा मोबाइल तो पकड़ा दो
भूख प्यास सब भूलकर
ये सारे एप खोल दिखा देंगे
*अब ऑनलाइन पढ़ाई में
और भी मजे हो गए हैं भई
सुनते रहो सर जी का लेक्चर
देखते रहो मनचाहा कोई
प्रोगाम
सरला मेहता