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सड़क का दर्द - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

सड़क का दर्द

  • 236
  • 6 Min Read

मानवता और चेतना पर जमती गर्द
संसद की अंधी और बहरी सी
दीवारों से टकराकर,
बेरुखी सी एक चुप्पी से घबराकर,
अनदेखा और अनसुना सा
रह गया सड़क का दर्द
रिश्तों की वो गर्मजोशी होती सर्द

सड़क से मुँह मोड़ती,
नजरें चुराती सी संसद
तोड़ती हर मर्यादा
और पार करती सारी हद
लच्छेदार, मसालेदार
भाषणों के राशनों से
बढ़ रहे हैं आज कद

जल रहा है जब शहर
मौत का हर तरफ कहर
एक जहर क्या कुछ कम था
जो आ घुला एक और जहर
मौत, गुरबत, भूख, नफरत
खौफनाक सा बहशीपन
उमड़ते बनकर लहर

बढ़ रहा है सिर्फ शोर
हो रहा शोषण पुरजोर
पिस रहा है बस कमजोर
जाने कैसा है यह दौर
सड़क छानता सड़क पर
भारत का यौवन,
मिलती नहीं कहीं पर ठौर

बोये थे जिसने सबकी
आँखों में सतरंगी सपने
वो सेंटाक्लाज रहनुमा,
हमने था जिसको चुना,
दाढी़ बढा़, सब कुछ भुला,
सबको मजहब की दवा सुँघा,
बाँटता कुछ टोटके,
जंतर,मंतर, लटके,झटके
और जिमाये सिर्फ मोर

धुँधलाई सी हर दिशा
अनंत सी लगती निशा
नहीं दीखता दूर-दूर तक
खुशहाली का कोई निशाँ

रूठ गया है मानो सूरज,
टूट रहा है अब तो धीरज,
भूल गयी है रास्ता हर रोशनी
उल्टे पाँव लौटती सी
जा रही है हर सुबह

नहीं दीखती खुश रहने की
अच्छा सा कुछ कहने की
कोई वजह

पुरवाई के खुशनुमा
अहसास को
तरसती सी रह गई है
बंद कोठरी सी बनकर
कैद करती सी खुद को
हर एक जगह

द्वारा: सुधीर अधीर

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