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निर्मला और उज्ज्वला - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

निर्मला और उज्ज्वला

  • 146
  • 13 Min Read

आज एक
बडी़ बहन
"निर्मला" ने
अपनी मासूम सी बहन
"उज्ज्वला" को
ना जाने क्यूँ रुला दिया

सेंटाक्लाज बनकर आये
सबको भाये, सब पर छाये
"नमो" फकीर काका के इस
"रसोई-रसोई" खेलने को,
बख़्शे एक खिलौने को
उधार की उस नींद के
एक सुंदर स्वप्न सलोने को

बेवजह, बेकार सा
बनाकर
एक नयी सी
"आत्मनिर्भर" करती सी
एक लोरी सुनाकर,
एक और झूले में
फिर से
यूँ ही झुलाकर,
पिछला सब कुछ भुलाकर,
अनायास ही पलकों के
गीले से साये में
अनचाही नींद सुला दिया

हर एक गरीब में
अपनी माँ का चेहरा ढूँढते
और अब मतलब
निकल जाने पर
मुँह फेरकर, आँख मूँदते
एक सपनों के सौदागर,
एक फकीर, एक बाजीगर,
दिल लूटने वाले जादूगर,
"घर-घर, हर-हर" सा
आकर छाकर
और अब
घर- घर,
हर घर को
"डर-डर, थर-थर" सा
कँपकँपाकर
एक नवदृष्टि को धुँधलाकर
उसका खोया वो धुआँ
फिर से वापस दिला दिया
बुझा दिया वो
चमचमाता सा दिया

वो धुआँ जो आँखों और साँसों का
एक कालकूट सा हलाहल होता था,
लगता है,
उसको आज अपने
जटाजूट से टपकता सा
नेत्रज्योतिवर्धक सा
आयुर्वेदिक औषध सा
बना-बनाकर पिला दिया

" निम्मो ताई, आजकल मैं
गैस खरीद नहीं पाती हूँ
घर में फिर से हो गया है
धुआँ-धुआँ
हर सपना अपना हो रहा है
फिर से धुआँ-धुआँ

कुछ धुआँ, कुछ आँसू पीकर
फिर से मैं लकडी़, उपले
या इधर-उधर बिखरे-बिखरे
कोयलों के चूरे से
काम चलाती हूँ
चूल्हे की आग जलाती हूँ
दो वक्त की, पेट की
आग बुझाती हूँ "

ताई बोली,
" मुझसे मत बोलो,
ये सब बेतुकी बातें,
करना है तो करो,
सिर्फ विकास की ही बातें,
मैं तो खुद सात्विक,
कच्चा सलाद ही
खाती हूँ
और बाबा का योगासन करके
अपनी सेहत बनाती हूँ "

" मगर ताई,
आजकल तो
सब्जियाँ भी
आसमान चूमती हैं
दालें भी
विकास के रंगीं पंखों से
हवा में उड़ती हुई
ऊपर और
ऊपर की ओर ही
घूमती है

मेरे तंगहाल ये हाथ
उन तक पहुँच नहीं पाते हैं
सब्जी वाले भैया इसको
महँगे डीजल की
करतूत बताते हैं

और सुना है, आजकल
पट्रोल भाई भी
साहब के उस बडे़
अहमदाबादी मैदान में
हर रोज शतक लगाते हैं

घर के बजट की गेंद को
बार-बार, बाउंड्री पार
फेंकते ही रहते है
बस फेंकते और
फेंकते ही रहते हैं

और मेरा बेबस मन,
मेरे जैसे फटेहाल,
खाली हुए
करोडों "जन-धन"
इस क्रिकेट के खेल को
बस देखते और
देखते ही रहते हैं

विकास के इस
महँगे होते खेल को
रोज बिकते रेल, तेल,
भेल*, सेल* और गेल* को
एक बंपर महासेल को
बस झेलते और
झेलते ही रहते हैं

होते पराये, अपनों को,
इस चमचमाते कारवाँ के
पाँव तले, कुचले-कुचले,
धुआँ-धुआँ पीती आँखों से,
चूर-चूर, मजबूर अधूरे
"अच्छे दिनों" के
उजले-उजले
सपनों को

भाषणों, आश्वासनों,
मन की बातों के राशनों से
चकाचौंध हो
एक और
" न्यू इंडिया " के इंतजार में
"फाइव ट्रिलियन " के
मोहजाल में फिर से फँसकर,
एक खोखली हँसी हँसकर
पीछे और पीछे ही
बस ठेलते और
ठेलते ही रहते हैं

आँसू बनकर बरसती,
पेट्रोल को तरसती सी
एक गाड़ी सी जिंदगी को
धक्का देते,
बस धकेलते और
धकेलते ही रहते हैं "

द्वारा : सुधीर अधीर

भेल* - BHEL
सेल* - SAIL
गेल * - GAIL

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