कहानीलघुकथा
नई कॉलोनी में गई तो देखा,बगल वाले मकान में एक बुजुर्ग सी महिला हमेशा खिड़की से बाहर झांँकती रहतीं।पति का बनाया मकान था इसलिए शायद घर के उस कोने में अपना अधिकार समझतीं।सर्दी-गर्मी,वार-त्यौहार,हर दिन उनके लिए एक सा था।भरा-पूरा परिवार था,पर वो अकेली।जब मुझे देखतीं,तो पूछतीं,"बस दो बेटियांँ ही हैं तुम्हारे?"देखते ही देखते समय बीतने लगा।अब,मेरी दोनों बेटियों की 'खिड़की वाली दादी' बन चुकी थीं।कहीं जाना हो या चाबी देनी हो एक विश्वास सा था कि आंटी खिड़की से देख रही होंगीं।उनकी आंँखों में अकेलेपन की कसक साफ दिखाई देती।कहने को घर में पोता-पोती सब थे पर उनके लिए सब ना के बराबर।बस खाने के वक्त उन्हें लगाई आवाज़ सुनाई देती।
दो-दिन से देख रही थी खिड़की बंद है,जानने की उत्सुकता से पूछा,तो पता चला बंटवारा हो गया है।सोचने लगी तीन बेटे है तीनों पहले से अलग हैं सब संपन्न हैं फिर काहे का बंटवारा।
जल्द ही सुनने में आया माँ का बंटवारा हो गया है।तीन-बेटे हैं तो चार-चार महीने सबके रहेंगी।मैं सोच रही थी बंटवारा!किसका हुआ?माँ की आस का या उसके दिए संस्कारों का या 'मेरे पास बेटा है' के विश्वास का!मैं खुश थी ये सोच कि मेरा बंटवारा कभी नहीं होगा।
@मीताजोशी
हमेशा की तरह खूबसूरती से जज़्बातों को सजीव चित्रित करती रचना👏👏आज के समय की कड़वी सच्चाई