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अंत या आरंभ - सोभित ठाकरे (Sahitya Arpan)

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अंत या आरंभ

  • 158
  • 13 Min Read

एक टोला या कस्बा कहे ,जहाँ घनघोर गरीबी ,
दरिद्रता ,और लाचारी छाई थी। शिक्षा और स्कूल
क्या है ? किसलिए हैं?किसके लिए है?इससे क्या
लाभ?  इन प्रश्नों के उत्तर से अनजान अपनी
रोजी रोटी कमाने में व्यस्त हर मजदूर यहाँ का
सूरज की किरणों के साथ ही अपने बच्चों को
झोपड़ियों में छोड़ जाया करते थे ।

इसी टोले में ज्योति ने प्राथमिक शिक्षक के रूप
में ड्यूटी ज्वाइन की ।ज्योति अभी अपनी कालेज
की पढ़ाई कर रही थी कि साथ मे ईश्वरीय कृपा से
यह जॉब भी मिल गई । सो उसे ऐसे माहौल में
उसका कार्य करने का पहला अनुभव था। साथ
मे कोई अन्य शिक्षक साथी भी नहीं थे । उसकी
ज्वाइनिंग से पहले  पड़ोस की स्कूल के एक
शिक्षक यहाँ का कार्यभार अपने स्कूल में बैठे बैठे
सम्भालते थे । अब नई शिक्षिका आ जाने पर
समस्त कार्यभार सौंप वे यहाँ के कार्य से मुक्त हो
गए ।

ज्योति ने जब बच्चों को देखा तो वह सन्न रह गई
। छोटे-छोटे बच्चे ,फटे -पुराने कपड़े पहने , बिना
नहाए ,बाल बिखरे हुए , चहेरे पर उड़ती
मक्खियां , बड़े -बड़े नाखून वाले ,अपनी घरेलू
भाषा मे वार्तालाप करते ।ज्योति की उनकी बोली
बिल्कुल भी समझ नही आ रही थीं। ज्योति गहरी
सांस लेते हुए चारों ओर देखकर -" मैं कैसे
पढ़ाऊंगी इन्हें । मुझसे नहीं होगा ।मुझे नहीं
चाहिए ये जॉब । स्कूल के नाम पर एक झोपड़ी ,
और ऊपर बताये गए जैसे 55 बच्चे ।बस यहीं हैं
स्कूल । " इतना सोच वह रो पड़ी ।

उसने जैसा सोचा था , उसके सौ गुना विपरीत थी
यहाँ की स्थिति ।  ज्योति को समझ नहीं आ रहा
था कि वह आरम्भ करे या अंत ।

ज्योति अवसाद से घिर गई थीं । उसने बच्चों की
छुट्टी की और घर आकर अपने पिता से कहने
लगी कि" मैं ये  जॉब नहीं करना चाहती । वहाँ तो 
न कोई सुविधा हैं नही स्कूल का कक्ष हैं ।बच्चे तो
पूछो ही नहीं । उनकी भाषा न मुझे समझ आती
हैं ,न मेरी भाषा उन्हें समझ आती हैं । आने जाने
वाले भी मुझ पर हँस रहे थें । मैं कोई और काम
करने को तैयार हूँ ,पर वहां न जाऊँगी।"

पिता रामकिशन ने ज्योति को अपने पास बैठा
उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा कि-"बेटी मुझे
पता है आज तुमने जीवन की वास्तविकता देखी
हैं । हमारे देश की इन  तस्वीरों को ही तुम्हें निखार
कर उनमें अपनी योग्यता से नए रंग भरना हैं ।
बेटा !वहाँ चुनौतियाँ बहुत होंगी , लेकिन तुम तो
हिम्मत वाली मेरी बहादुर बेटी हो । शायद ईश्वर ने
तुम्हें उन नन्हें -नन्हें बच्चों के जीवन में शिक्षा का
प्रकाश बिखेरने के लिए चुना हैं । और ईश्वर उन्हीं
लोगों को इस कार्य के लिये चुनता हैं जिसमें वही
असीम योग्यता का भंडार भरता हैं ।

और बेटा ईश्वर ने तुम्हें वो हुनर ,ज्ञान दिया हैं
जिससे तुम उन मासूमों की जिंदगी में एक आशा
की किरण बन सको ।  यहीं तुम्हारा कर्तव्य हैं कि
नई शुरुआत करो , चुनौतियों का डटकर
मुकाबला करो । "

अपने पिता की आशातित बातें सुन ज्योति ने
ठान लिया कि वह अपना कर्तव्य निभाएंगी और
इसके लिए नव आरंभ करेंगी।

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नेहा शर्मा

नेहा शर्मा 3 years ago

हम जब भी निराश होते हैं हमारे शिक्षक हमारे गुरु हमारे माता पिता आशा की लौ हमारे जीवन में जगा जाते हैं।

सोभित ठाकरे3 years ago

जी ,बिल्कुल

दादी की परी
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