कविताअतुकांत कविता
डा. शिव प्रसाद तिवारी "रहबर क़बीरज़ादा"
डोम काटत किवाड़ी
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कल रात मैंने एक सपना देखा,
एक विचित्र सा सपना।
सपने में देखा लोक नायकों की टोली।
टोली में सबसे आगे बापू गाँधी बाबा थे,
बापू के साथ थे राजा राम मोहन राय,
और बाबा कबीर थे,
रहीम दास थे,
और थे संत रविदास भी।
सभी से आगे थे,
बापू के तीन बन्दर।
बन्दर तीनों पैरों से चल रहे थे,
हाथों से बाकी अपना काम कर रहे थे।
राजा राम मोहन के हाथों में एकतारा था।
बाबा कबीर के हाथों में था तुंबा।
ढ़ोलक नहीं थी,
किसी के हाथों में थी खंझरी।
और किसी के हाथों में थी ढ़पली।
टोली दिल्ली के लाल किले पर थी।
एक तरफ लाल किला था
और दूसरी तरफ धा
राज पथ तक फैला हुआ दिल्ली शहर।
दिल्ली शहर मानों संतों से कह रहा था,
आओ आओ,
आकर मुझमें समा जाओ।
मेरी सड़कों और गलियों से गुज़रो,
मेरी सड़कों पर गाओ,
वो लोक गीत,
वो दर्द से भरा लोक गीत,
मेरे गाँव का वो लोक गीत।
केवाड़ी डोम काटत,
बत्तीसों खंबा हालत।
बाबा की दुवरिया,
कोऊ जागत बा नाहीं।
कोऊ जागत बा नाहीं।
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