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सोने में सुहागा - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

कहानीलघुकथा

सोने में सुहागा

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"सोने में सुहागा"

माँ चन्द्रमणि अकेली बैठी सोचती है," आज वैदेही के पापा होते तो...कितने अरमान से नातिन सोना के लिए पोची व झुमके बनवाए थे। कहते थे उसकी शादी के मायरे में देंगे। लेकिन बहु रिद्धि को मुहँ दिखाई में दे दिए।" तभी रिद्धि मसाले वाली चाय के दो मग और कुरकुरी मठरी ले आई। और लड़ियाते हुए बोली, " आज मेरी चाँद सी प्यारी माँ पर ये काली बदरिया क्यूँ भला ? क्या पापा फ़िर याद आ गए ? हूँ ऊ ऊ...अभी अभी आपके लाड़ले रोहन डाँट पिला कर गए हैं। चलिए चाय पीते हैं। ज़रा ये अजवाइन वाली मठरी चखिए, आपके जैसी बनी कि नहीं। "
चन्द्रमणि बहु को दुलारते कहती है, " ये है न मेरे पास...मेरी चाँदनी। कैसा भी अँधेरा हो, भगा देती है।"
रिद्धि फ़िर बात छेड़ बैठी, " अभी दीदी का फोन आया था। कह रही थी शादी में चार दिन पहले आने का।
सब पूछ लिया मैंने कि किसको क्या देना है। हाँ माँ, वो पोची व झुमके ही हम सोना को देंगे और दीदी को मेरे कंगन। "
" लेकिन... वो मेरी इस बेटी के हैं। अरे ! ये वैदेही कब आ गई, पूरे सौ बरस की उमर है तेरी। " माँ दरवाज़े की ओर देखते हुए बोली।
वैदेही ने नाराज़ी जताई, " मैंने दोनों की गिटर पिटर सुन ली है। मुझे कुछ नहीं चाहिए। और सोना को क्या सोना देना। "
रिद्धि ,ननद को गले लगाती बोली," आप तो हैं ही सीता मैया की वंशज, पूरी त्याग की देवी।"
और वैदेही एक सेट निकाल कर दिखाने लगी, " माँ, आपके दामाद ने कहा है कि शादी में यह आपकी तरफ़ से होगा। आपके आशीर्वाद ही सोने में सुहागा होंगे, समझी आप।"
सरला मेहता

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Anujeet Iqbal

Anujeet Iqbal 3 years ago

कमाल की रचना। नमस्कार maam

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