कविताअतुकांत कवितागजल
डा. शिवप्रसाद तिवारी "रहबर क़बीरज़ादा"
सूर्पनखा की नाक कटाई।
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हे राम, हमारे राम
परम श्री धाम
कौशल्या पुत्र शान्ता के भाई।
भला बताओ,
सूर्पनखा की नाक कटाई,
आप ने कैसे करायी !
नारी यह दुर्गति
आप को कैसे भायी !
कहते हैं
तुम त्रेता युग में,
धरती पर अवतार लिये,
रघुकुल में लेकर जन्म
राम रूप में आये,
और भगवान कहलाये।
गो वंश के शत्रुओं का,
तुमने फिर नाश किया।
गो माता प्रसन्न हुयी,
सद्वृत पालन की परंपरा में
सूर्यवंशियों की,
तुमने तो निश्चय ही ,
महती एक प्रयास किया।
तुम पर माता का जो ॠण था।
तुमने तो बस अपने कुल को,
माता के ॠण से मुक्ति दिलाया था।
राक्षस कुल का नाश तो बस,
इस ऋण मुक्ति की एक कथा है।
राक्षस कुल जो गोवंश घाती था।
सारा ही वंश सारा कुल,
बड़ा ही प्रमादी था।
गोमांस का भक्षण,
गोघाती कुल का रक्षण,
यही बस उनके अर्थ थे।
बाकी सब व्यर्थ थे।
भूले तो तुम नहीं रहे होगे हे राम,
कि तुम्हारे ही पूर्वज,
राजा दिलीप का वंशवॄक्ष खतरे में था।
गो माता नन्दिनी की,
उन्होंने बहुत सेवा किया था।
राजा थे,
राजा होकर भी ग्वाले सा कर्म किया करते थे।
जंगल जंगल विचरण करते गाय चलाया करते थे।
नन्दिनी रुकती रुकते,
नन्दिनी चलती चलते,
गो माता की रक्षा में,
माता के साथ रहा करते थे।
रक्षा में माता की,
नित्य अतिकष्ट सहा करते थे।
क्षत्रिय का धर्म निभाते थे,
गो सेवा के इस कर्म से,
ना ही वो थकते ना ही अघाते थे।
गो माता फिर प्रसन्न हुयी थी,
राजा का फिर वंश चला था।
पुरुष के लिये गोमाता में,
कोई परम तत्व होता है।
कहते हैं,
गोमाता में पुंसवनत्वचा होता है।
पुंसवनत्व तो होता पुरुषाधारी है।
शास्त्रों का अनुशीलन भी-
यही बताता है।
नारी तो जननी है,
मात्र यह माता है।
पाप पुर्ण्य के जैसा यह व्यापार है।
इसमें पुरुष जो बोता है,
बस वही काटता है।
है यही पुंसवन का रहस्य,
यही आधार है।
गो सेवा तो परम सेवा है।
गोसेवा करता व्यक्ति नहीं कुछ खोता है।
पाता ही पाता है जीवन भर।
परम प्रसाद परम उपहार।
ॠषियों का आग्रह तो मात्र बहाना था,
गोमाता के हेतु तुम्हें तो जाना था।
गोभक्षक राक्षस कुल का नाश,
परम अपरिहार्य था।
कार्य तो तुमने किया वही-
जोकि परम अनिवार्य था।
बची हुयी ऊर्जा को फिर अन्यत्र लगाया,
हे राम तुम्हें कुछ काम समझ ना आया।
गुरू वशिष्ठ की सत्ता जो परम प्रभावी थी,
सिंहासन पर श्री राम तुम्हारे,
बस एक वही बिराजी थी।
बाकी तो सब था झूँठ,
लोक सेवा वो तुम्हारी,
तुम्हारा वो परम अनुशासन।
चहुँ दिशा जग प्रसिद्ध वह सुशासन।
क्या फिर धर्म बचा कुछ बाकी,
किया जब माता सीता का-
निज ग्रह से निष्कासन।
धर्म अधर्म की परिभाषा में,
तुम्हारे सम्मुख,
कुछ तो लोचा था,
तुमने शायद इस बिन्दु पर,
कभी न कुछ सोचा था।
धर्म की ठेकेदारी जिसके हाथ रही,
क्या तो होता गलत और क्या होता है सही।
बस वही किया करता था निर्धारण
वही लिया करता था निर्णय,
होने का ना होने का।
जीने का या मरने का।
उसके प्रस्थानों पर कुछ ना सोचा विचारा।
वनवासी विद्यालय जा शम्बूक को मारा।
सूर्पनखा की नाककटायी,
क्या तो थी अनिवार्य,
भला यह कैसे करायी? नारी तब से कटी नाक ले घूम रही है।
हम से, तुम से, सब से,
तब से ही प्रश्न कुछ पूँछ रही है।
सूर्पनखा की नाक अगर तुम ना कटवाते,
इस बर्बरता को उचित अगर तुम ना ठहराते,
इतना तो होता कि,
पुरुष का अपौरुष पुरुष के ही सर होता।
नारी को यह भार भला क्यों ढ़ोना होता।
व्यक्ति कोई भी,
और कभी भी,
अपना अपराध छिपाने को,
अपने को सच्चा बेगुनाह बतलाना को,
नाक ना काटता किसी नारी की।
कोई नारी निरपराध नककटी नहीं कहलाती।
अबला अबला कहला कर भी इज्ज़त पाती।
हे राम तुम्हारे नाम पर यूँ अपराध न होते।
महापुरुषीय भार को हम ऐसे ना ढोते।
नारी मुक्ति,
क्योंकि अबला थी,
नतमस्तक वह रही तुम्हारे सम्मुख।
और सदा ही उसने पाया,
तुम्हें सत्य से विमुख।
प्रतीक्षारत ही रही- नारी मुक्ति की कथा।
रही सोचती कब आयेंगे,
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम विमोचन करने को।
आँचल में-
नूतन आशायें भरने को।
मेरे बंधन, मेरी वाधाये, मेरी व्यथा,
मेरी मुक्ति की कथा रही अनकही कथा।
नारी मुक्ति की कथा रही अनकही कथा।
हे राम, हमारे राम
परम श्री धाम
कौशल्या पुत्र शान्ता के भाई।
भला बताओ,
सूर्पनखा की नाक कटाई,
आप ने कैसे करायी !
नारी यह दुर्गति आप को कैसे भायी !
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