कहानीसंस्मरण
"काकी..ओ काकी!" बुआ जी की आवाज़ें जोर पकड़ने लगी।"अरे गई रे काकी, अत्ती जल्दी काईं ही जो तू चली गी। "
घर के पिछले हिस्से में गायों के छप्पर के पास, घास-फूस की छोटी सी झोंपड़ी थी उसी में काकी रहा करती।गाय, भैंस और बकरियों की देखभाल करने के साथ ही घर के छोटे-मोटे काम मिनटों में सलटा डालती।बुआ जी की मांँ के साथ उनके पीहर से आई थी, तब सात साल की थी फिर बुआ जी के साथ ही उन्हें यहाँ विदा कर दिया गया।उनके बच्चों का,अपने बच्चों के समान पूरा ध्यान रखती| छोटे कद की दुबली-पतली काकी, घाघरा-चोली पहनती।कहीं कोई आकर्षण नहीं था।कर्कश-ध्वनि में जब भी अपनी भाषा में बोलती कुछ पता ही नहीं चलता क्या बोली।झोपड़ी के आसपास साफ-सफाई कर उसे चमकाए रखती जैसे कोई महल हो और फुर्सत के समय में वहीं बंँधी गाय-बकरियों से ऐसे बातें बनाती जैसे दोनों आपस में एक-दूसरे के मन के भावों को समझ रही हों।घर के हर सदस्य की जुबान पर काकी ये कर दे, काकी वो कर दे ही चढ़ा रहता।उसका खाना-पीना, कपड़े-लत्ते सब बुआ जी की जिम्मेदारी थी।
कॉलोनी के बच्चों की जुबान भी काकी नाम से वंचित न रहती। ऐसा नहीं की बोलने की मीठी थी या बच्चों को बहुत प्यार करती बल्कि इसलिए कि घर के बाहर लगी बेर की झाड़ी से बच्चों को बेर न तोड़ने देती।धै-मार गालियांँ दे, डंडा हाथ में ले बच्चों के पीछे भागती।बच्चे छुपम-छुपाई खेलते हुए यदि बुआ जी के घर के पिछले हिस्से में चले जाएंँ तो अपनी ही भाषा में चिल्लाने लगती, "अरे म्हारे कमरा में चोर घुस गा रे।"
अपने उस दायरे से निकलकर जाते उसे कभी किसी ने नहीं देखा।उसने अपना पूरा जीवन यहीं बिताया।
जो भी था आज काकी चली गई।जगत बुआ जी की आवाज़ से आसपास के लोगों ने वहांँ भीड़ लगा ली।काकी खटिया पर मौन पड़ी थी और बुआ जी लगातार बोलने में थी, "अति जल्दी काईं थी जो छोड़ चला गया।"
काकी के चेहरे पर पूर्णविराम सा लगा था।बच्चे- बड़े सब इकट्ठा थे।उसको इतना शांत कभी किसी ने नहीं देखा था।वो खटिया पर सीधी पड़ी थी ऐसे लग रहा था जैसे कितनी सौम्य और शांत रही होगी।
छोटे-छोटे बच्चे भी यही कहते नजर आए, "यार अब बेर तोड़ने में वो मजा नहीं आएगा।काकी से बचकर तोड़ने का तो आनंद ही अलग था।घरवालों से ज्यादा बाहर वालों की बातों में काकी शामिल थी अब गाय का दूध कौन निकालेगा?घर की साफ सफाई कौन करेगा?
सभी की चर्चा सुन बुआ जी ने जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया, "म्हारो दायों हाथ ही, बीके रहता मनै कोई चिंता फिकर कोनी ही।"
थोड़ी देर बातों का दौर चलता रहा आगे की तैयारी शुरू होती उससे पहले अचानक काकी उठ खड़ी हुई, ऐसे जैसे गहरी निद्रा से जागी हो।
"काकी तू ठीक है!" बुआ जी ने घबराते हुए पूछा|
"हांँ परलोक री यात्रा करके आई हूंँ।यमराज जद मनै लेर गया बारणां(दरवाजा) पर पहुँचता ही भगवान बोल्या, "अरे या कुंण ने ले आया इको अभी समय कोनी आयो और मनै वापस भेज दी।"
सभी का मन ही मन हँसते हुए बुरा हाल था।अब ये एक बार का किस्सा नहीं था ऐसा दो-तीन बार हुआ अक्सर काकी परलोक चली जाती और यमराज उसे वापिस भेज देते।ये भी सभी के लिए एक कौतुहल का विषय बन चुका था।बच्चे मजाक-मजाक में कहते "चलो काकी से पूछ कर आएँ काकी ने स्वर्ग में क्या-क्या देखा। "
आज बच्चे दूध लेने गए तो देखा काकी फिर शांत पड़ी थी।सब उसे देख हँसने में लगे थे।सुबह का समय था इसलिए सबने नजरअंदाज कर दिया।बुआ जी के कानों तक बात पहुँची तो बोलीं, "रैबा दे, ओ तो इको रोज को ही काम है। "
वो चुप-चाप दूध निकाल चली गईं। हाँ एक झलक काकी की खटिया में उसे स्वर्ग की यात्रा करते, चिर निंद्रा में देख गईं।आखिर उनके पीहर से साथ आई थीं एक जुड़ाव तो था ही।काकी आज नाश्ते के लिए भी नहीं आई।जब काफी समय बीत गया तो बुआ जी समझ गईं काकी के पास जब तक सब इकट्टा नहीं होंगे तब तक वो स्वर्ग की यात्रा ही करती रहेगी।वहाँ पहुँच जब काकी नहीं बोली तो बुआ जी ने हल्ला मचाना शुरू कर दिया पर आज उनकी आवाज़ सुन कोई पड़ौसी भी नहीं आया। दस बज रहे थे सभी का व्यस्त समय था लोगों ने सोचा इसका तो आए दिन का नाटक है।
आज काकी नहीं उठी| दूसरों का तमाशा बनाने वाली आज खुद तमाशा बन रह गई| न जाने कब चिर-निद्रा में लीन हो गई थी। काकी से किसी को प्रेम न था पर उसकी हरकतें सभी को उससे जोड़े रखती।काकी चली गई| बहुत दिनों तक मोहल्ला शांत पड़ा रहा। बेर की झाड़ी बेरों से लदी हुई थी पर बच्चों को कोई उत्साह न था। गाय उस दिन से दूध बहुत कम दे रही है शायद काकी के साथ अपनी समीपता का एहसास करवा रही थी।
समय बीतने लगा।जब हम बच्चे बड़े हुए तो काकी के बार-बार परलोक जाने का रहस्य समझ आया।बुआ जी के भरे-पूरे परिवार में अपना एक छोटा सा कोना ढूँढने के लिए काकी सारे नाटक करती होगी।इस तरह से वो अपनी महत्ता दिखा सबका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करती।छोटी सी झोंपड़ी के अलावा सबके दिल में ,उस घर में अपनी अहमियत दिखाना काकी का उद्देश्य रहा होगा।
ज़िन्दगी फिर सामान्य हो चलने लगी।काकी की कुटिया भी हट गई समय बीतने के साथ अब उसका वजूद भी धूमिल हो चुका था पर बुआ जी, उनकी बातों में काकी का जिक्र आज भी आ ही जाता।बेर की झाड़ी हर साल लदी रहती पर अब वो बच्चे बड़े हो चुके थे।जीवन किसी के लिए नहीं रुकता।समय का काम है बहना वो अपनी गति से बढ़ता जाता है।पर इंसान एक मात्र ऐसा प्राणीं है जो भावनाओं से जुड़ता है और जाने के बाद भी, अपनों की स्मृति को अपने जेहन में समेटे रखता है।सभी को अपने वजूद की तलाश होती है।काकी की हरकतों को सोचें तो गलत होते हए भी उनसे प्रेम हो जाता है। प्रेम, प्यार और खुशमिजाज व्यक्तित्व सभी के दिलों में जगह बनाने में मददगार होता है।
©मीताजोशी
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति और मन को लुभाने वाली कहानी के अंत तक मनोरंजन करती है
धन्यवाद मेघा जी🙏💐
मर्मस्पर्शी रचना 👌👌👌👌
अपने व्यस्त जीवन में से कुछ चंद लम्हे मेरी कहानी को देने के लिए आभार🙏💐
Bahut sundar rachna 👌👌
धन्यवाद मामा।अच्छा लगा आपका comment देख कर🙏
ख़ूबसूरती से लिखी हुई. ह्रदयस्पर्शी, भावपूर्ण रचना..
धन्यवाद सर। इसी तरह प्रोत्साहन करते रहिए।🙏
बहुत खूबसूरती से काकी के ज़ज़्बातों को बयां किया है।👍
🙏❤️शुक्रिया
Beautiful story❤️❤️😍👌👏👏👏
हमेशा की तरह आज भी मुझसे जुड़ उत्साहवर्धन करने के लिए दिल से धन्यवाद।
हर इंसान अपना वज़ूद बनाने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहता है।काकी भी इससे अछूती नहीं थी।कहानी में हास्य के साथ मार्मिकता भी है।
आपको पसंद आई शुक्रिया।उम्मीद है कुछ पुराने लोग आपको भी याद आए होंगे।