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उम्मीदों का बोझ - पं. संजीव शुक्ल 'सचिन' (Sahitya Arpan)

कहानीलघुकथा

उम्मीदों का बोझ

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उम्मीदों का बोझ
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गजब की निस्तब्धता थी फिजा में, हर आँख सजल , चेहरे गमों के सागर में गोते लगाते से दिख रहे थे। रामचरण तो जैसे जड़वत मूर्तिमान से हो गए थे…हों भी क्यों न आज उनका श्रवण जो इस दुनिया को अलविदा कह गया।

श्रवण और सिद्धार्थ दो ही तो तो बेटे थे रामचरण के , श्रवण बचपन से ही शान्त स्वभाव का मितभाषी लड़का था , बड़ो का कहना मानना एवं हर कीमत पर उनके कहे पर खरा उतरना जैसे उसके जीवन का एक मात्र ध्येय था …..वहीं सिद्धार्थ खुद से मतलब रखने वाला सबका दुलारा ।.

घर बार चलाने के लिए कम उम्र में ही सम्पूर्ण परिवार के उम्मीदों का बोझ श्रवण के नाजुक कंधों पर आन पड़ा गाँव में पैसों की तंगी देखी शहर आ गया …लगा कमाने पैसे आने लगे तंगी मिटने लगी किन्तु इंसानी प्रवृत्ति ऐसी है जो इंसानी आवश्यकताओं को दिन प्रतिदिन बढ़ाती ही जाती है ।

रामचरण का परिवार एवं खुद रामचरण भी इस कुत्सित इंसानी प्रवृत्ति से अछूते न रह सके … आवश्यकतायें सबकी जैसे जैसे बढ़ती गईं श्रवण उन सभी के उम्मीदों के बोझ तले दबता चला गया …. इस बीच श्रवण की शादी से परिवार बढ़ा आवश्यकतायें बढ़ी उम्मीदों का बोझ और भारी हुआ ….. जब कमाई कम पड़ने लगी तो विकल्प के रूप में कर्जदाता मिलने लगे।

सब ने श्रवण से केवल और केवल उम्मीदें की किसी ने भी यह जानने का प्रयास नहीं किया कि उनके हर आवश्यकता को पूर्ण करने वाला, उनके उम्मीदों का बोझ ढोने वाले उस इंसान की मनोदशा क्या है।

जैसे – जैसे समय बितता गया कर्ज का बोझ बढ़ता गया …कर्जदाता तगादा करने लगे ..धीरे – धीरे बात बात – विचार से बढ़कर गाली – गलौज और फिर धक्का – मुक्की तक पहुंच गई ..जबतक बर्दाश्त हुआ श्रवण सहता रहा किन्तु बर्दाश्त की , सहने की भी अपनी एक सीमा निर्धारित है।

आज पूरा गाँव संपूर्ण परिवार श्रवण के असमय मृत्यु से आहत है किन्तु जबतब वह जीन्दा रहा किसी ने भी उसकी सुध न ली।
पता नहीं ऐसे कितने ही श्रवण कुमार आये दिन उम्मीदों के बोझ तले दब कर मृत्यु का वरण कर लेते हैं और रह जाती है तो केवल उनके नाम पर बहने वाली घड़ियाली आंसू एवं झूठ मूठ का विधवा विलाप….।।।।
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✍✍पं.संजीव शुक्ल “सचिन

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दादी की परी
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