कहानीसंस्मरणलघुकथा
होली के रंग--
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फागुन के रंग शीर्षक देखा तो मचलने लगे रंग बिरंगे सपने आखों में जो कभी हमने भी देखे थे । 50 साल पहले की एक घटना फिर से याद आगयी । मेरी नयी नयी शादी हुई थी । अल्हड़ उम्र थी । मै शहर की थी पर ससुराल का माहौल थोड़ा ग्रामीण था । पहली होली थी । ससुराल में घूघंट होता था। कहां मैं शरारती जो सारे दिन उछलकूद मचाने वाली ।
होली का दिन घर में मेरे पति देव और मेरे जेठ जी भांग की ठंडाई बना रहे थे । उन्होंने एक बाल्टी में छान कर रख दी । मेरी सासु मां को पता था कि इसमें भांग है।
मुझे और मेरी जेठानी को नहीं पता था ,क्योंकि कि हम घूंघट लगाये हुये थे हमने देखा नहीं बस दोनों ने दो दो गिलास पी ली बस आधा घन्टे बाद हम दोनों की हालत देखने लायक थी । सासु मां ने जितनी कचौड़ी बनाई सब हम दोनों के पेट में पहुँच गयी । उसके बाद सब देवर और पतिदेव के दोस्त होली खेलने आगये । मै तो कभी होली नहीं खेलती थी क्योंकि रंगो से बहुत चिढ़ती थी । मेरी जेठानी ब्रज की थी बस उन्होंने ओढ़नी के कोड़े बनाये और एक मेरे हाथ में दिया एक अपने हाथ में
रखा । बस कोड़ो की होली होने लगी । मुझे कोड़े चलाने नहीं आते थे और वह मेरे पैर में लिपटा और मै धड़ाम से गिरी और बेहोश होगयी । पूरे घर में हड़कम्प मच गया । ससुर साहब ने सब की क्लास लगा दी । एक तो भांग का नशा और ऊपर से गिरने की चोट 6 घन्टे बाद होश
आया । बस उस दिन से मुझे होली के रंगों से डर लगता है। सब खेलते हैं पर मै देख कर ही खुश होती हूँ ।
स्व रचित
डा. मधु आंधीवाल