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उत्तराखंड एक छोटा सा पर्वतीय राज्य है उमंग और उल्लास से भरा हुआ। यहां पर कई स्थानीय त्योहार मनाए जाते हैं जिनमें फूलदेई चैत के महीने में मनाया जाने वाला एक बालपर्व है। हिन्दू पंचांग के अनुसार चैत्र माह से ही हमारा नववर्ष आरंभ होता है। उत्तराखंड अपनी लोक संस्कृति के लिए देश भर में जाना जाता है और अब तो विदेशों में भी हमारी संस्कृति अपना परचम लहरा रही है, यह संभव हुआ है- संचार माध्यमों की बदौलत और साथ ही विदेश में प्रवास करने वाले उत्तराखण्डियों का भी इसके प्रचार प्रसार में बहुत बड़ा योगदान है ।
उत्तराखंड अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए जाना जाता है। ऊंचे पर्वत, नदियां और जंगलों में खिलने वाले खूबसूरत फूल इसकी छटा को और भी निखार प्रदान करते हैं। बसंत ऋतु के अंतर्गत मुख्यतः दो माह फाल्गुन और चैत्र आते हैं, होली के साथ ही फाल्गुन का समापन और चैत्र का आरंभ हो जाता है , इसे फूलों का महीना कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। चैत्र मास की संक्रांति को ही मनाया जाता है फूलदेई का त्यौहार।
यह आज भी अपना बचपन याद दिलाता है जब हम थाली में रंग बिरंगे फूल, चावल आदि लेकर अपने घरों की देहरी पूजते थे और फिर अपनी टोली के साथ आसपास के घरों में भी जाते थे। आज शहरी बच्चों के पास ना समय है और न उत्साह। मगर आज भी गांवों में यह त्यौहार बच्चों द्वारा बड़े ही उत्साह के साथ मनाया जाता है। बच्चे आसपास के घरों में जाते हैं, देहरी पर फूल और चावल डालकर------फूलदेई, छम्मा देई नामक लोकगीत गाते हैं जिसमें यह कामना की जाती है कि सभी के घरों में शकुन और मंगल हो, सभी का घर धन-धान्य से पूर्ण रहे। बच्चों को बदले में गुड़, चावल, पैसे या अन्य उपहार भेंट किये जाते हैं। इन चावल और गुड़ को घी में मिलाकर घरों में एक विशेष व्यंजन तैयार किया जाता है जिसे 'सई 'कहते हैं। ये त्यौहार जीवन में आनंद और उत्साह जगाते हैं, हमें अपनी संस्कृति और परंपरा से जोड़ कर रखते हैं। खासकर ग्रामीण परिवेश में जहां आज भी संचार साधनों की बहुत ज़्यादा उपलब्धता नहीं है, ये पर्व जीवंतता को कायम रखने का बहुत बड़ा स्रोत हैं। हमारी लोक परंपरा यूं ही कायम रहे, अनवरत चलती रहे। इसी कामना के साथ.....