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मन बन वनवासी राम सा - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

मन बन वनवासी राम सा

  • 190
  • 7 Min Read

सब कुछ पाकर भी जो
कुछ लगते नाकाफी से,
ज्यादा और ज्यादा उनको
पाने की आपाधापी में

मृगतृष्णा की पटरियों पर,
मन का आनंद रौंद के
कंचनमृग की चकाचौंध से
चममचमाती, दमदमामाती
बुलेट ट्रेन सी एक ताबड़तोड़ में,
भागमभाग दिनचर्या की
एक अंधाधुंध दौड़ में

जाने कहाँ, कितना पीछे,
टेढी़-मेढी़ इस पगडंडी के
कब, कौन से मोड़ पे
छूटी अपनी जिंदगी

अर्थ खोती, व्यर्थ होती,
अर्थ से अनर्थ होती,
टूटी-फूटी, छूटी
मन की बंदगी


जिसकी बस परछाइयाँ ही
साथ कब से चल रही है,
हर हलचल, हर कोलाहल में
सन्नाटा बन तैरती तनहाइयाँ ही
जाने कब से छल रही हैं

नाक चढा़ कर,
मुँह चिढा़, ठेंगा दिखाकर
हालातों के पतझड़ में
जीवनतरु से झर-झर झड़ते
कुछ सूखे पत्ते बिछाकर

जीवन के छूटे अवसर
मन की माला से कुछ मोती
जाने क्यूँ जो टूटे अक्सर

हाँ, विस्मृति की अग्नि को
सौंप जीवन-सुख की सीता
मन बन वनवासी राम सा
भौतिक सुख की माया को,
असली सीता की छाया को
साथ लेकर चल रहा है

बिछुड़ना है जिसे एक दिन
संतोष की लक्ष्मणरेखा को लाँघकर,
हठ की हर सीमा फाँदकर
किसी कपट के वंचक रावण के
चंगुल में फिर से फँसकर
बेलगाम मन के कदमों को
जमना ही है एक दिन
तृष्णा की दलदल में धँसकर

किसी दंभ के दक्ष के
पाखंड-यज्ञ में
भस्म संगिनी के शव को
कंधों पर ढोता सा
बौराया शिव सा पगला मन
पछतावों के आँसुओं से
मन को धोता सा

क्या पायेगा फिर से
अपनी प्राणप्रिया को
ये मन अपनी उमा, रमा,
उस शांतिरूपिणी सिया को

हाँ, तरसता है मन जिससे
करने को कुछ पल कुछ बात
जाने कब होगी जीवन से
मेरी फिर से मुलाकात

द्वारा: सुधीर अधीर

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