कविताअतुकांत कविता
*साड़ी का पल्लू*
माँ पहनती थी सूती साड़ी
उसे धोती कहा जाता था
और माँ की साड़ी का वह प्यारा सा पल्लू
उसकी पीठ व सर की शोभा बनता
काँधे से उतर सामने ही
लटका रहता हरदम
मानो खूँटी पर लटका तौलिया ही हो
आँखे मलते जब उठता
माँ के मुलायम पल्लू में सवेरा होता मेरा
कुछ खाऊं या पीयू
पल्लू मेरा रुमाल तौलिया
सब कुछ होता
बिजली जाने पर पंखा बन जाता
और धूप से बचाने को छाता बन छा जाता
ट्रेन बस की खिड़की खराब होने पर
माँ का पल्लू बहुत ही काम आता था
आज भी भुला नहीं पाया
उस तमाम मसालों की खुशबू से भरे
माँ के पल्लू को
हाँ बाबा की डाँट से भी
बचाता था मुझे
अपना लहराता पल्लू भी
माँ साथ ले गई अपने
जब याद में आँखे भर आती
दिल ढूंढता उसे बार बार
सरला मेहता