कवितालयबद्ध कविता
मैं और मेरे अच्छे दिन
अक्सर ये बातें करते हैं.
तुम ना ही आते तो
कितना अच्छा होता.
सपनों के सौदागर बनकर
झूठी-मूठी आशाओं का
एक सुनहरा आँचल बनकर
नजरों पर ना ही छाते तो
कितना अच्छा होता
मैं और मेरे अच्छे दिन
अक्सर ये बातें करते है
नये-नये इन जुमलों के ये
गगन चूमते से अंबार
और इमोशनल ब्लैकमेल के
ये सारे हथियार
ना ही हम पर आजमाते
तो कितना अच्छा होता
मैं और मेरे अच्छे दिन
अक्सर ये बातें करते हैं
नौकरियाँ चाहे ना देते
जो कुछ थी
बस उनको ही
आप बख्श देते
हर रोज हमारी जिंदगी को
महँगाई का ना दंश देते
हमको हमारे हाल पर ही
बस आप छोड़ जाते तो
कितना अच्छा होता
मैं और मेरे अच्छे दिन
अक्सर बातें करते हैं
इंसाँ इंसाँ में
यूँ भेद ना करते
जवान और किसान में
पैदा यूँ मतभेद ना करते
दिल्ली को कीलों से
यूँ कैद ना करते
किसान के रिसते छप्पर को
यूँ ही बस छोड़ देते
उसे हटाकर
दूर, कहीं पर दूर
फैले आसमाँ के
चाँद और सूरज से जबरन
यूँ ना जोड़ देते
तो कितना अच्छा होता
मैं और मेरे अच्छे दिन
अक्सर ये बातें करते हैं
सिलिंडर ना इस कदर
रसोईघर से रूठता
हर रोज एक मजबूर सा
चेहरा बनाकर
बार-बार ना लूटता
इसका नाता निर्धन से
यूँ इस तरह ना टूटता
रह जाता बस थोडा़ सा ही
आमदनी और खर्च में
कुछ तो तालमेल
बार-बार घर के बजट से
होता ना यूँ खेल
दो वक्त की रोटी से
हर रोज पेट भर जाता तो
कितना अच्छा होता
मैं और मेरे अच्छे दिन
अक्सर ये बातें करते हैं
रेल, भेल और तेल की
यूँ ना लगती बंपर सेल
वाचमैन बस वाचमैन ही
बनकर रहता,
ना बनता यूँ इस तरह
इन सबका सुपर सेल्समैन
"स्वच्छ भारत" से तो बस
सड़कें ही गुलजार होती
बैंक इसकी झाडुओं से
काश बच जाता तो
कितना अच्छा होता
काला धन सफेद
होता-होता यूँ
इस गुलाबी रंगत से
काश बच जाता
तो कितना अच्छा होता
मैं और अच्छे दिन
अक्सर ये बातें करते हैं
द्वारा : सुधीर अधीर