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कठपुतली - Gaurav Shukla (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिक

कठपुतली

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"बहू? अरी ओ बहू ? सुनती हो? तुम्हारी पड़ोस वाली चाची आयी हैं दो कप चाय लिए आना?" :- मां जी ने बड़े अधिकार भरे लफ़्ज़ों में आदेश देते हुए मुझसे कहा।

"हाँ लायी!" :- मैंने कहते हुए जल्दी से चूल्हे पर पानी रख कर उसमे चायपत्ती और चीनी दूध डाल दिया ।

"गरिमा को अगर जिंदा रखना चाहती है तो जैसा मैं कह रहा हूँ वैसा कर?" (धमकाते हुए विनय ने मुझसे कहा)

"लेकिन ये तुम्हारी बेटी भी तो है ?
विनय मुझे छोड़ दो तुम जो कहोगे मैं वो करूंगी बस मेरी बच्ची को छोड़ दो?" :- (रोते हुए )

"कल से तेरा बाहर जाना बन्द!,
और अपने बाप को फोन करके कह मुझे पैसों की जरूरत है! अभी के अभी" :- मेरे हाँथ में विनय ने फ़ोन रखते हुए कहा

मेरे हाँथ कांप रहे थे। हाँथ में मोबाइल ,पीछे गरिमा मेरे साड़ी के पल्लू में डरी सहमी सी ,समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ।

कि तभी ....बाहर से आवाज आयी,

"सरिता देख कुछ जल रहा है क्या? यहां तक गन्ध आ रही है?" :- मां जी ने मुझे बुलाते हुए कहा।

मैं एक झटके से पसीने में तर-ब-तर साड़ी का पल्लू लेकर मुंह को पोछा,और चूल्हे पर रखी चाय को उतारा....

"सपना था ?एक बुरा ख़्याल!,या यूँ कहूँ की आने वाले कल की एक झलक" :- मन ही मन मैंने खुद को कहा....!

एक डर सा बैठ गया है मेरे और विनय के रिश्ते को लेकर।
जबसे आयी हूँ।बस कठपुतली बन के रह गयी हूँ ।

"लीजिए !" :- मैंने चाय का ट्रे बढ़ाते हुए चाची से कहा ।

"अरे सरिता तू जॉब नहीं करती ?सुना है तूने इंजीनियरिंग की है वह भी कंप्यूटर से?" :- चाची ने आज वो तीर मुझ पर चलाया था जिसका घाव आज पूरे दस साल से मैं झेलती आ रही हूँ,जो शायद अभी तक नही भरा था।

मैं एक पल के लिए ठहर सी गयी ये सुन कर....एक यादों का झोंका फिर से मुझे झकझोरने लगा.....

"क्या करेगी जॉब करके मैं कमा के दे रहा हूँ न ,किसी को देना होगा न ? किसको ?.....तू ऐसे नहीं मानेगी,रुक? :- विनय ने शादी के ठीक 3 महीने बाद ही मेरे जॉब करने की बात को लेकर थाली मुझपर फेंक कर हाँथ उठा दिया था।

ये उसका पहला धागा था जो मुझपर कस चुका था।

उस दिन से लेकर एक -एक करके मेरे हर सपने,हर ख़्वाब पर विनय का हक़ होने लगा था।

ऐसा नहीं था कि मैंने उसको समझाने की कोशिश नहीं की?
या फिर उससे लड़ी नहीं लेकिन मैं हार चुकी थी ।

शादी के ठीक 1 साल बाद जब मैं प्रेग्नेंट हुई । मेरी तबियत सही नहीं लग रही थी डॉक्टर ने खुशखबरी दी लेकिन सारी ख़ुशी उस पल टूट के बिखर गयी जब विनय के मुह से मैंने ये बात सुनी थी।

"मुझे लड़का चाहिए सरिता अगर बेटी हुई तो समझ लेना!" :- विनय मुझे धक्का देते हुए कहा।

और ये उसका दूसरा धागा था जो मुझपर कस चुका था।

गरिमा के जन्म होते ही विनय ने मुझे उस दर्द से कहीं ज्यादा दर्द तब दिया जब उसने गरिमा को अपनी बेटी तक मानने से इनकार कर दिया।
मुझे एक नई उम्मीद जरूर मिली मेरी गरिमा।
लेकिन उतना डर भी बना हुआ था कि कहीं विनय गरिमा पर भी अपना हाँथ न उठा दे?

मुझे और गरिमा को हंसता देख विनय से रहा न गया ।
और उसने अपना तीसरा धागा भी मुझ पर कस ही दिया,मुझे इस घर से बाहर न जाने के लिए कह कर।


"बहू थोड़ी बिस्किट भी लिए आ" :- मां जी ने जैसे मुझे एक झटके से बीते कल से आज में ले कर आते हुए मुझे बिस्किट लाने भेज दिया।

हाँथ में ट्रे,सर में पल्लू और धीमे धीमे क़दमो की आहट लिये मैं अंदर जाते हुए यही सोच रही थी,

गरिमा जितनी मेरे लिए ताक़त थी उतनी ही कमज़ोरी?
आखिरकार विनय को चौथा धागा कसते हुये देर न हुई?

"आज से तू गरिमा से नहीं मिलेगी?" :- विनय ने मेरा गला पकड़ते हुए बोला।
"लेकिन अभी वो बच्ची है विनय ?प्लीज ऐसा मत करो" :-(रोते हुए)
लेकिन विनय ने एक न सुनी....उस दिन इस कठपुतली की जैसे जान ही जा रही थी...

"लीजिए!" :- मैंने सामने प्लेट रखते हुए चाची से कहा।

"क्या हुआ सरिता तेरी आंखों में आंसू?" :- मेरी आंखों में आंसू देख चाची ने मुझसे कहा।
"नहीं कुछ नहीं...!":- मैंने बात को टाल दिया....

एक कठपुतली के दर्द उसके आँसुयों से भी बयां नहीं हो पाते....

मैं अपनी ही दुनिया में खोयी सोच ही रही थी की तभी विनय अपने काम से वापस आया....

"सरिता अंदर आओ...." :- विनय का बुलाना भी मुझे बड़ा डरावना सा लगने लगा।

और जिस चीज का डर था वही हुआ आखिरकार विनय ने मेरा गला दबाते हुए बोला :- "ये ले ! कॉल कर अपने पापा को मुझे अभी के अभी पैसा चाहिए नहीं तो मैं तेरी बेटी को मार डालूंगा"

शायद अब पांचवा और आखिरी धागा था जो इस बार विनय नहीं मैं ख़ुद उसके हांथो में बांधने जा रही थी...

मैंने पापा को कॉल करके जैसा विनय ने कहा ठीक वैसे ही कह दिया....
लेकिन
"आज से मेरा और विनय का रिश्ता नहीं रहा..." :- मैंने पापा को ये बात कहते हुए फ़ोन कट कर दिया।

आज विनय को मैंने इस रिश्तेनुमा धागे से आजाद कर देना चाहती थी ....
उसकी कठपुतली अब उसके इशारों पर नहीं नाचना चाहती थी।
या यूँ कहूँ कि अब मैं कठपुतली बन के नहीं रहना चाहती थी।
जो उसके इशारों में चले.....ना हीं चलना चाहती थी....मैं गरिमा को इस कठपुतली का खेल नहीं देखने देना चाहती थी।

इसीलिए आज एक और कठपुतली सूली पर चढ़ने चली थी।
मैंने विनय से अपना रिश्ता तोड़ ही दिया...

उसकी कठपुतली,आज उसके हाँथो से रिहा हो चुकी थी....

हमेसा के लिए....


✍️गौरव शुक्ला"अतुल"©

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दादी की परी
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