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मुफ्तलाल, फोकटचंद्र..... - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

लेखआलेख

मुफ्तलाल, फोकटचंद्र.....

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मुफ्तलाल, फोकटमल, उधारीचंद्र, खैरातीराम... जी हाँ, ऐसे सवनामधन्यों की यह सूची अनंत है. शायद द्रौपदी के चीर जितनी लंबी जिसका दूसरा छोर तो बस केशव के हाथ में ही है. इसके पीछे इनकी शक्ति बनकर खडे़ रहते हैं अनेक अकाट्य तर्क, जैसे,

" अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे ना काम ".

इनकी जिंदगी भी अजगर की तरह मजबूत आलस्य की पकड़ की अकड़ से जकडी़ रहती है या फिर पंछी की तरह सपने के आसमान में ख्याली पुलाव का भोग करती हुई मुंगेरी लाल के हसीन सपने देखती है रहती है. और ये दास मलूका वाले राम के ध्यान डूबकर आराम फरमाते रहते हैं.

किसी विद्वान् ने इस प्रवृत्ति का महिमामंडन कुछ इस तरह किया है,

" यावज्जीवेत् सुखेन जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् "

हिंदी के एक महान कवि ने इसका सरल रूपांतरण कर दिया ताकि हम सब समझ सकें, कुछ इस तरह,

" कर्जा करके घी पियो,
जब तक घट में प्राण
देने वाले रोयेंगे,
मरने पर श्रीमान,
कि जैसे बाप मरा हो "

मतलब, अगर किसी का नामलेवा कोई ना हो तो उसे सबसे कर्ज लेकर ही मरना चाहिए. इससे फाॅलोअर्स की संख्या बढ़ती रहती है और मरने के बाद तो उसके शेयर सभी परिचितों द्वारा एक दूसरे को मिलते रहते हैं. घोर तप करने पर भी जो अमरता नहीं मिल पाती, वह कर्जजीवी, खर्चजीवी को सहज ही चिरंजीवी बना देती है.

आजकल किसी शोकसभा में अगर किसी को फूट-फूटकर रोता हुआ और सबके साथ मृतक से जुडे़, संगीतमय स्वर में, अपने संस्मरण साझा करते देखता हूँ तो मेरी छठी इंद्रिय बता देती है कि यह जरूर उस कर्जजीवी सुखभोगी का शिकार कोई भुक्तभोगी है.

ऐसे महानुभाव स्वभाव से ही संतोषी होते हैं. एक प्रार्थना पर गौर फरमायें,

" हे प्रभु, नहीं चाहिए, लाख, करोड़, हजार
बस इतना ही कर दीजिये, मिलता रहे उधार "

कुछ जेबकर्तनकलानिपुण लोग कुछ इस तरह निवेदन करते हैं,
" भगवान, तेरी इस दुनिया में
कभी जेब किसी की ना खाली मिले
कोई भी गरीब ना हो जग में,
हर पाॅकेट में हरियाली मिले "

शायद कोई योगी भी इतना निष्काम, निश्छल, पारदर्शी और निर्लिप्त नहीं होगा. वर्तमान में ही जीने वाले, गत और अनागत कल, इन दोनों को ठेंगा दिखाते ये स्थितिप्रज्ञजन तुरीय अवस्था की ओर अबाध रूप से बढ़ते रहते हैं.

एक शहर में एक अत्याधुनिक, नवीनतम तकनीकसंपन्न, हाईटेक होटल खुला. एक मुफ्तलाल उधारचंद ने उसे भी धन्य करने के लिए पदार्पण किया. जाते ही इलेक्ट्रॉनिक सेंसर की प्रेरणा से मुख्य द्वार स्वतः ही खुल गया. सामने दो विकल्प थे, वातानुकूलित और साधारण. वातानुकूलित के सामने चरणधूलि झाड़ते ही वह द्वार दिल खोलकर स्वागत करने लगा. आगे एक बार फिर चयन का अवसर मिला, शाकाहारी और मांसाहारी . फिर अपनी इच्छानुसार चयन करके आगे चले तो दो और द्वार फिर एक बार, उत्तर भारतीय या दक्षिण भारतीय . उत्तर भारतीय विकल्प चुनकर आगे बढे़ तो एक और कृपा सामने हाथ जोड़कर खडी़ थी, नकद या उधार. अब जहाँ उधार का विकल्प हो, वहाँ कोई हतभागी ही नकद में फँसेगा. मन ही मन आशीष देते हुए उधार वाले द्वार पर दाँव लगा बैठे मगर बैठते कैसे और कहाँ? वे तो सीधे होटल के पीछे वाली पतली गली से बाहर निकलने को मजबूर हो गये.

सुख और दुख, निंदा या स्तुति को जीवन की धूप-छाँव समझने वाले ये धीर कभी अधीर नहीं होते और भाग्य पर अटल विश्वास रखते हैं. या फिर यूँ समझो कि भाग्य के बल पर ही साँस भरते हैं. पानी के बुलबुले जैसे क्षणभंगुर जीवन को ये विदेह की भाँति कभी गंभीरता से नहीं लेते और आलस्यरस के परमानंद में गोता लगाते रहते हैं. "संतोष सबसे बडा़ धन है", यह सूत्र अपने व्यक्तित्व और चेतना पर बाँधकर किनारे पर बैठे जीवनधारा को आँखों-आँखों में पीते रहते हैं. चिकने घडे पर जैसे कोई तुच्छ बूँद ठहर नहीं पाती, कोई भी व्यंग्यबाण, विषम परिस्थिति या उत्तेजक भाव इनके धैर्य कवच को नहीं भेद सकती.

हमारे देश के कर्णधार माननीय नेताजन भी चुनाव जीतते ही इनके जीवनदर्शन को शिरोधार्य करके, कुंभकर्ण का भी मानमर्दन करते हुए छः माह नहीं, पूरे पाँच साल खर्राटे भरकर बाकी सबको जागने का संदेश देकर निद्रादेवी की ममता की गोदी में "निर्लज्जः सदा सुखी " को चरितार्थ करते हुए परमसुख प्राप्त करते हैं. चुनाव जीतते हैं तो हार मिलते हैं और बाकी सबको हार मिलती है. किसी को निद्रा का वरदान और किसी को जागरण का उपहार मिलता है. अपना-अपना भाग्य और भाग्यानुसार ही अपनी-अपनी सोच. और इनके गुरु मुफ्तलाल " कोउ नृप होइ, हमहु का हानी "
" जाहि विधि राखे राम " ताहि विधि जीते रहते हैं. ये भी अपने इन राजनेता शिष्यों की तरह पाँच साल तक ऊर्जा संरक्षण करके एक दिन उसका विस्फोट करके, ताश की गड्डी की तरह फेंटकर किसी की दुनिया हिला देते और किसी को सत्तासुख दिलाते रहते हैं. फर्क कुछ नहीं पड़ता मगर कम से कम एक दिन के सुल्तान बनकर पत्रं, पुष्पं पाते रहते हैं

धन्य हैं ये परमधीर, परमवीर जो कभी अधीर नहीं होते और "बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत कहो ", बस निष्काम भाव से साँसों की माला पर जीवन को भजते रहते हैं और चेतना, संवेदना और चिंतन जैसी निरर्थक प्रवृत्तियों को दूर से ही प्रणाम करके अहंकारमुक्त, निर्लिप्त, निर्विकार जीवन को उन्मुक्त रूप से बूँद-बूँद कर बिंदास जीते रहते हैं.
जीवन को आलस्य के साँचे में ढालकर परमतृप्ति पद पर विराजमान रहते हैं.

द्वारा : सुधीर अधीर

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