कविताअन्य
किस मद की मदहोशी है न जाने कैसा इनका शाकी है
बिके हैं खुद या किया सौदा आवाम का समझना बाकी है|
मर रहा है अन्नदाता ये अपना सियासत का खेल रचा रहे,
सियासती मंच पर कर अभिनय बेशर्म ठहाके लगा रहे,
बस रोटियां अपनी पका रहे, कैसी सियासती झांकी है|
यूं ही बटोरने को वाह वाही, खुद को जन हितेषी कहलाते,
गिरेबान देखे नहीं, दिखावी नसीहतें औरों को सिखलाते,
बिके जमीर पर यूं इठलाते, लोमड़ी सी देखो चालाकी है|
नहीं परहेज सियासत से, जरा सी इंसानियत तो दिखलाओ,
अन्नदाता और मेहनत कश के दर्दों पर ठहाके यूं न लगाओ,
भद्दा मजाक उनका न बनाओ, पीस रहे जो बीच चाकी है|
सियासत ही करते सियासती, औकात अपनी खूब दिखलाई,
शर्मसार तार तार लोकतंत्र, कहां गई वो दिखाते थे सिखलाई,
कलम 'माचरा' न लिख पाई, कुकर्मों से दिल में हुई टाकी है|
किस मद की मदहोशी है न जाने कैसा इनका शाकी है
बिके हैं खुद या किया सौदा आवाम का समझना बाकी है|
मैन पाल माचरा
एक किसान वंशज