कविताअतुकांत कविता
अपनी धारा अपना वेग
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तुम मेरी जुबान बँद करना चाहते हो |
क्योंकि मैं अपनी भाषा बोलने लगा हूँ |
रंजिश बस यही है तुम्हारी कि
अब मैं तुम्हारी भाषा का अर्थ समझने लगा हूँ |
उन व्यर्थ की बातों को नकारने लगा हूँ |
तुम्हारे स्वागत में छुपे साजिशों को
मैं पहचानने लगा हूँ |
तुम कितने खुश थे |
जबतक मैं वही पढ़ता रहा
जो तुमने लिखा ,इन पन्नों पर
मैं वही बोलता रहा
जो तुमने बोलने को कहा आमजनों पर |
पर अब मैं खुद लिखने लगा हूँ |
अपने मन की कलम से
बोलने लगा हूँ अपनी भाषा
जो निकल कर आती है मेरे जहन से |
मुझे अच्छा नहीं लगता
तुम्हारा नाराज होना |
पर क्या करूँ अब मुश्किल हो गया
मेरा चुप रहना |
जुबान बँद रखने की कशमकश
को सह पाना
अब यह तोड़ जाता है तटबँधों को
जो तूने बनाए थे |
अब यह बहना चाहता है अपने वेग में
बिना रोक टोक के
अपनी दिशा में
जहाँ सागर की लहरें का आमंत्रण दे रही हैं
अब तुम्हारी मंत्रणाओं में
इसका मन नहीं बसता
वह जाना चाहता है वहाँ
जहा सूरज की किरणें निमंत्रण दे रही हैं |
शायद यह अस्तित्व की आवाज को
समझने लगा है |
इसलिए अपनी गति में बहने लगा है |
अपनी धारा ,अपना वेग
मिट गया अब तेरे मेरे का भेद |
सागर में कहाँ दिखता
जमीन को बाँटनेवाला मेंड़ |
कृष्ण तवक्या सिंह
08.03.2021.