कविताअन्य
आजकल जब भी
आजकल जब भी बाहर देखती हूँ हर
जगह ऊँची ऊँची इमारते है, बहुत,कही भी कोई दूर दूर
तक किसी को कोई नही पहचानता,
पर क्या में हूँ, मैं भी तो ऊँची ऊँची इमारत में ही तो रहती हूँ, मुझे भी तो ऊपर अच्छा लगता है, फिर मैं कौन हूँ किसी को दोष देने वाली, उस के लिए पहले मुझे जमीन
में आना होगा, तब जाकर मैं किसी दूसरे पर ये दोष दे सकती हूँ, आजकल जब भी बाहर देखती हूँ ऊँची ऊँची
इमारतों को,