कहानीलघुकथा
मोना सुबह से बुखार में तप रही थी। उसका सर दर्द से फटा जा रहा था, शरीर में इतनी भी शक्ति नहीं थी कि वह उठकर खड़ी हो जाए। मोना का मुंह सूख रहा था पर उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह पानी भी ले सके।
मोना का पूरा परिवार उसके साथ ही रहता था परंतु किसी को भी इतनी फुर्सत नहीं थी उसके कमरे में जाकर उसका हालचाल ले लें। मोना के ससुर व्यापारी थे, वह सुबह ही निकल जाते थे। सासू मां को उपन्यास पढ़ने का शौक था, वह पूरे दिन उपन्यास पढ़ती रहती थीं। पति भी ससुर के साथ दुकान निकल जाते थे। बच्चे भी अपने खेल में मगन थे।शायद किसी को भी मोना की स्थिति का कोई ध्यान ही नहीं था।
मोना को रसोई घर से सासू मां के बड़बड़ाने की आवाजें आ रही थी, शायद आज उन्हें खाना बनाना पड़ रहा था। उन्होंने भी मोना का हालचाल जाने का प्रयास नहीं किया।
जबकि सुबह ही मोना के पति उन्हें मोना के बुखार में होने की खबर दे चुके थे।
मोना की आंखों में आंसू आ गए। उसको अपने मां,पापा की याद आने लगी।
जब वह स्वस्थ होती है तो पूरे दिन
"मोना यह कर लो, मोना वह कर दो" की आवाजें लगती रहती हैं। आज वह बीमार है तो दो मिनट कोई उसके पास भी नहीं बैठ रहा है। पति ने भी दवाई हाथ में पकड़ा कर जिम्मेदारी से इतिश्री कर ली। अब बिना पानी के दवाई कैसे ले वो फिर उससे तो बैठा भी नहीं जा रहा। बच्चों को आवाज लगाई पर वह खेल में थे, उन्होंने अनसुना कर दिया। मोना नम आंखें लिए बिस्तर पर कराहती हुई अपने आप से ही सवाल जवाब कर रही है, "क्या ये मेरे वही अपने हैं, जिनके लिए मैं सुबह से शाम लगी रहती हूं। अगर ये मेरे अपने हैं तो क्यों नहीं महसूस होता मुझे अपनेपन का एहसास, क्यों नहीं आती मुझे अपनेपन की खुशबू....."
शालिनी शर्मा"स्वर्णिम"