कविताअतुकांत कविता
अब मैं थक गयी
हकीकत से !
क्यों न थोड़ा सा मुस्कुराया जाय
जो काम बने नही हकीकत में
उन्हें कल्पना में सजाया जाय।
जब पैदा हुई तो लड़की थी
इसी बात की बस कड़की थी।
लोग खूब उलाहनें देते थे
किसी बात पर जीनें नही देते थे
ये लड़की तू कहाँ चली
यहाँ चली या वहां चली
हर बात में टांग भिड़ाते थे
थोड़ा न रहम दिखाते थे।
फिर शादी ,फिर ससुराल
वहां पर बी वही हाल
अब लड़की नहीं अब दुल्हन
भारी सारी पहन वहन
सारा काम करती हूं
सर्दी हो या गर्मी की रात हो
या घनघोर बरसात हो
बहुत घूंघट मत हटाना
चाहे, मुंह के बल गिर जाना।
फिर हड्डी टूटे या टूटे टांग
या फिर छूटे ये प्रांण !
पर बहू घूंघट मत हटाना।
मन बहुत बांवरा है
कभी- कभी खिझ जाता है
फिर जो लोग मना करते हैं
वही काम हो जाता है।
आज कल्पना करती हूं
बनके लड़का टहलती हूं
द्वार हो या हाट बाजार
अब नही किसी से कोई टकरार
पहले खाना खाती हूँ
थाली को टकराती हूं,
दंभ जवानी का भरती हूं
थोड़ा व्हिस्की थोड़ा
रम भी पी लेती हूँ ।
रजवाड़ों सी ठाठ नवाबी
उसपर आंखे उसकी नशीली शराबी
थोड़ा बही मैं जाती हूँ
लोगो को भी बहलाती हूं।
पर अब कोई बात नहीं
समाज में है ये रश्म नयी
जो पीते हैं वही जीते हैं
और जो नहीं पीते वे क्या? खाक जीते है।
हर बताएं में मनमानी
अब नही किसी की तानातानी
तभी मुहं पे गिराया किसी ने एक बाल्टी पानी
सामने खड़ी है सासुरानी!
बहुत तू क्या बेहोश है
तुझको नही होश है
नात मेहमान आए हैं
औरों को साथ भी लाए हैं
तल लाना पकौड़ी जरा
काफी से कप भरा भरा।
अब आंख खुली होश आया
अपने को फिर वहीं पाया है।
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