कविताअन्य
अंतिम यात्री...
आँखे बंद थी
देख रहा था
लोग रुदन कर रहे।।
शोर मचा कर
जोर जोर से
सीस मुझ पर धर रहे।।
याद आ रहा
आज बचपन
पहले माँ नहलाती थी
आज लोग नहला रहे।।
बच्चो सा बरताव किया
कपड़े नए पहनाए है
उठा लिया है कंधो ऊपर
पूरा गाँव घुमा रहे।।
नफरत की है जीवनभर
वो आज देखने आए हैं
कहा गए ओ भाई मेरे
कह प्यार लुटा रहे।।
लोग पूछते रहे
वो किस लिए विदा लिए
भले मानुष थे
वो कैसे चले गए।
इंतजार कर रहा
आज मेरा श्मशान।
क्या थी क्या हो गई
आज मेरी पहचान।।
चिता पर लेटा हूँ
आग अभी बाकी है।
भूलो ना मुझे तुम
शराद अभी बाकी है।।
मरने पे रो रहे जो
देख आज डर रहे।
पिशाच नाम दे दिया
दूरी मुझसे कर रहे।।
तुमने ही बुलाया है और
लौट आज आया मैं।
पहले में अपना था
बना अब पराया मैं।।
महेश'माँझी'
मनुष्य जीवन की वास्तविकता पर प्रकाश डालने वालीं अद्भुत कविता superb
धन्यवाद आदरणीय