कवितालयबद्ध कविता
खुद से रूबरू
जिंदगी का फूल बार बार नहीं खिलता
खोया हुआ वक़्त वापिस नहीं मिलता
सपने कब मरे हैं दिल कब बूढ़ा हुआ
झुर्रिया आने से बस नूर से जुदा हुआ
ये सपने भी तुम्हारे जीवन भी तुम्हारा है
लोग चले जाएंगे सफर भी तुम्हारा है
बहुत से ख्वाब इन आखो ने बीच दिए
बेचने के बाद फिर नए कभी न लिए
सपनो की नगरी अजीब सी नगरी है
झूठी कभी सच्ची ख़ुशी दे जाती है
जगा हु नींद में भी सपने क्यों सुला दिए
याद कर उनको जो हसते हुए रुला दिए
हौसले की दवा ले के चलना शुरू कर
बबली खुद को खुद से ही रूबरू कर