कवितालयबद्ध कविता
हिचकियाँ अब बंद हैं
मन के सभी झरोखे
और यादों की
खिड़कियाँ सब बंद हैं
ये खिड़कियाँ अब
देती हैं बस झिड़कियाँ,
और बाकी सब बंद हैं
मन की किसी सुरंग में
जाकर दुबके वो ख़्वाब
वहीं पर जाकर ठहरे
और पलकों की चिलमनों पे
आकर ढुलके जज़्बात
वो गहरे-गहरे
हाँ, इन सब पर
पथरीली सी सख्त निगाहों के
दिनों दिन सख्त होते पहरे
इस पथरीले से,
जहरीले से,
चेहरे के
आँख-कान अब दोनों ही
हो चुके हैं अंधे-बहरे
मंजिलों की ओर बढ़ते
मासूम से अंदाज में
तुम सबके इस
रुके-रुके से आज के
कदम अचानक
यूँ रुककर
अनचाहे से मोड़ पर
अब आकर ठहरे
हाँ, इन पत्थरों को तो कल
तुमने ही तराशा था
जोड़-जोड़कर इनको तुमने
इनमें ही एक ख़्वाब नया
तलाशा था
तो क्या हुआ
जो इनके छल के,
धू-धू कर ऐसे जल के
ख़्वाब वही अब हुए धुआँ
इन पत्थरों के साये में
बसकर हर एक
पथरीला सा बाशिंदा,
इंसानियत को कर शर्मिंदा,
खुद भी पत्थर हो गया है
कानों में यूँ तेल डालकर,
सो गया है
हाँ, तुम ही तो इस सबके
जिम्मेदार हो
हाँ, तुम्हारे ही हाथों
हुआ ये बंटाधार तो
फिर क्यों रोते हो,
इतने अधीर क्यों होते हो?
हाँ, जैसे-तैसे करके
गाँव चले जाओ,
धरती की ही गोदी में तुम
प्यार वहीं पर फिर पाओ
हाँ, धरती का दिल
बहुत ही बडा़ है
उसके सीने से खडा़
तुम्हारा आशियाँ
अब भी वहीं खडा़ है
आ, अब लौट चल
छोड़ सभी ये उलाहने,
मन के सारे खोट, चल
धरती की गोदी में,
अब तू
आसमान को ओढ़ चल
गिरकर उठ और फिर सँभल
रूखी-सूखी ही सही
अपने घर में भी रोटी है
इस मिट्टी के कण-कण में
वहीं, कहीं पर छिपा
कीमती मोती है
तू बस आज वहीं पर चल
हाँ, बस चल, तू चल
सायों में मत खुद को छल
मिट्टी की खुशबू में ढल
ये बेरहम
पत्थर का जंगल
छोड़ चल
हरी -भरी माँ की
गोदी की ओर चल
चल खुसरो, घर आपने,
खुद अपने कदमों से
राहें नापने
खुद अपने कदमों से
मंजिल छाँटने,
चल खुसरो घर आपने,
चल खुसरो, घर आपने
सुधीर अधीर