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सृजन - Krishna Tawakya Singh (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

सृजन

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सृजन
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सृजन बने संगीत,कर्म नाचे नित्य
हर पल बन जाए पूजा अपनी
तो समझो
जग लिया हमने जीत
फिर थकते नहीं
कड़कते नहीं
चलते हैं जाते हैं
अपनी धुन में
मिठास आ जाती है |
फिर नहीं बदलती मिश्री की कली
कड़वे नीम में |
दबाब को हटाना सीखो |
धूल पड़े तो झाड़ना सीखो |
अविद्या को पहचानो |
तर्क की तलवार से लड़ना सीखो |
हटा दो माथे से सिकन
गिर न जाओ वही जहाँ दिखता है चिकन
चलने के लिए रूखड़ाहट भी जरूरी है |
अक्सर चिकनाई फिसलन भरी होती
इस बच गए तो मिल जाती धूरी है
जीवन की ,संगीत की
हम शायद पहचान मिल जाती है
जीवन के रीत की |

कृष्ण तवक्या सिंह
20.02.2019.

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