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गाँव ! तुम्हारी बहुत याद आती है - Krishna Tawakya Singh (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

गाँव ! तुम्हारी बहुत याद आती है

  • 224
  • 9 Min Read

गाँव ! तुम्हारी बड़ी याद आती है
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गाँव बहुत शिकायत है तुझसे
पर बहुत याद आती है तुम्हारी
शहर की इन सड़कों पर ,अभी भी तेरी गलियाँ हैं भारी |
कुछ हैं वजह जिससे तेरे यहाँ
जीना दुस्वार हुआ
बदला जग सारा
पर नहीं बदला
जो पुराना विकार हुआ
संस्कार की चादर पहनाने को
कुछ लोगों पर धुन सवार हुआ |
गन्ने और चने
मिल जाते थे खेतों में
मटर के दाने न इतने मुहाल थे
मिल जाते थे रेतों में
रंगों के मौसम का
बड़ा इंतजार होता था |
होली सबसे बड़ा त्योहार होता था
रंग गुलाल ,कादो मिट्टी
बच न पाता चाहे त्वचा हो कितनी गोरी चिट्टी |
एक दूजे को सब जानते
जड़ो से एक दूजे को पहचानते
चाहे दूरियाँ लाख हो मुँह पर अपना मानते |
गेहूँ की बालियाँ ,चने की डालियाँ
चढ़ जाती आग के हवाले
लग जाता होरहा
भुन जाते दाने बिना कडाही में डाले |
बड़े छोटे सबों के बीच
एक रिश्ता था |
हर कोई एक दूजे की नजर में
जैसे कोई फरिश्ता था |
भले ही नजर के सामने
और नजर के पीछे और बात थी |
पर किसी की सरेआम बेइज्जती
एक गंभीर धात थी |
ऐसा नहीं की वहाँ भी अंदर बाहर
एक जैसा था |
पर शायद इतना प्रबल
उस वक्त नहीं यह पैसा था |
अनाज से सुराज था
दिलों में रस का राज था |
होली की धुन में मस्त होता
पूरा गाँव एक साथ था |
भले ही मुश्किलें थी |
पर महफिलें फिर भी जमती थी |
तेरी याद आज भी जहन में उठती है |
बड़ा सताती है |
सुनते हैं वहाँ भी सबकुछ बदल गया |
गलियाँ सुनी ही रह जाती हैं
अपने घरों के अन्दर ही होली भी खेली जाती है |
हर किसी का चौखट लक्ष्मण रेखा है |
एक दूसरे के हिसाब का
बड़ा लंबा लेखा है |
गाँव तुझे जैसा मैंने देखा है
अब तू वह नहीं
बदल गया वह जो बनी रेखा है
अब शादी में भी
गीतों की रेकॉडिंग बजती है |
अब कहाँ पहले जैसी बारात सजती है |
अभी भी हम उन्हीं खेतों में खड़े हैं
दुनियाँ कहाँ की कहाँ गयी
मेरी स्मृति में वही याद जड़े हैं |
हर त्योहार में तेरी बड़ी याद आती है |
गाँव की याद एक आह भर जाती है |
जितना लिखूँ अधूरा ही रह जाता है |
गाँव तू मुझे बहुत याद आता है |

कृष्ण तवक्या सिंह
19.02.2018.

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