कविताअतुकांत कविता
*अन्तर्मन की पुकार*
दिमाग़ी उपज हैं ये विचार
ह्रदय में छुपी हैं भावनाएं
जो कहलाती हैं संवेदनाएँ
इन्हीं से मानव बने इंसान
अन्यथा वह है पशु समान
अंतःकरण की सद्भावना
मानव मात्र के उपकारार्थ
बिना कोई स्वार्थ लाभ के
भूखे को दो जून की रोटी
बेघर को सर पे छत्रछाया
तन ढकने को कुछ कपड़े
अनाथ को ममता व प्यार
वृद्धों को एक शरणस्थली
बेटों को बनाएँ संस्कारित
बेटियाँ,सुरक्षित व शिक्षित
स्त्री हर रूप में सम्मानित
अत्याचारी दुराचारी पापी
बक्शे ना जाए,सज़ा मिले
ये व्याख्या संवेदनाओं की
जाति धर्म से बड़ा कर्म है
कर्मकांड से बड़ा मर्म है
यदि सभी से प्रेम करें तो
ये धरा ही स्वर्ग समान है
आएं सहयोग सहकार से
ऊंच नीच,भेदभाव से दूर
शान्ति करुणा सद्भाव से
दीप से दीप जलाते हुए
प्रेम की गंगा बहाते चलें
प्रकृति के पंचतत्वों को
सकल चर अचर के प्रति
जता कर संवेदनशीलता
अंजाम दें स्वकर्तव्यों को
उपहार के अधिकारों का
बुद्धिमतापूर्ण उपयोग हो
मानव जीवन सफ़ल करें
जीवित रहे ये संवेदनाएं
वरना ये होती ख़्वाबों सी
चाँद जगाता है अंधेरों में
व सूरज ले लेता आहुति
नहीं मांगती दो कोड़ी भी
कुछ तो कर ही सकते हैं
ढलकते अश्रु पोछ दें ना
रोते को थोड़ा हँसा दें ना
दिल के ज़ख्म सहला दें
भला ग़र ना कर सके तो
बुरा करने का सोचे क्यों
राह पे फ़ूल बिछा ना सके
काँटे बोने का सोचना क्यूँ
कुछ अच्छा ही सोचे सदा
तभी होंगे हमसे शुभ कर्म
जागेंगे तभी सवेरा होगा
सुने अन्तर्मन की पुकार
जी,संवेदनाएं बुला रही हैं
सरला मेहता