कविताअतुकांत कविता
नदी की वेदना
आग हूं जिससे ढुलकते बिंदु हिम जल के
धारा सूखी, सूखी धरा बिन वन जीवन के
गिरी पत्तियां ,टूटी डाली, उजड़े नीड़ चिरैया के
पनघट,नदिया,ताल- तलैया कहां गये सब बचपन के?
देख तुम्हारी वेदना को छटपटाता है हृदय
मां !मुक्त करेंगे विष से तुम्हे प्रण है अकाट्य
दुष्वृति हमारी, अपमान तुम्हारा अब त्याज्य
ठान ले गर मनुज जो पलट दे साम्राज्य।
निर्मल जल पर उजली किरणें, न हो प्रदूषण
कुंदन सम रेणु चमकेगी,ज्यों जगमग आभूषण
कल - कल निनाद गूंजेगा,लौटेगी हरियाली
करेंगे आचमन ,दे मलीनता को तिलांजलि।
पवित्र , पावन हिम जल से ही भरनी अंजुली
पवित्र , पावन हिम जल से ही भरनी अंजुली।
गीता परिहार
अयोध्या