कविताअतुकांत कविता
अस्तित्व की आवाज
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कुछ लोग मुझे तोड़ना चाहते हैं |
कुछ लोग मेरी गरदन मरोड़ना चाहते हैं |
जिस मिट्टी में मेरी जड़ें हैं |
कुछ लोग उसे कोड़ना चाहते हैं |
न जाने क्यों मुझे वे खड़े होते हुए देखना नहीं चाहते
मेरा मुस्कुराना उन्हें रास नहीं आता
मेरे होठों पर नमीं उन्हें नहीं भाती
मेरी आँखों में नमीं लाना चाहते हैं |
वे बैठे देख रहे थे हवाओं के झोंके
मुझे हिला पाते हैं ,या नहीं
वे निराश थे जब इनके थपेड़े को मैंने सह लिया
झुका गये थे वे मुझे
पर फिर मैं खड़ा हो गया |
कुछ टहनियाँ टूटी अवश्य
पर जड़ हिले न थे |
पर ये इन जड़ों को हिलाकर
मुझे मिट्टी में मिलाना चाहते हैं |
कहाँ चला था मैं आकाश को चूमने
ये मुझे चूर्ण बनाना चाहते हैं |
हवाओं में गूँजती मेरी आवाज को
पैरों तले दबाना चाहते हैं |
उनकी चाहत और मेरे अस्तित्व में ये कैसा बैर है
यह समझ में नहीं आया अबतक
किसे अपना कहूँ ,कौन गैर है |
कृष्ण तवक्या सिंह
17.02.2021.